कृष्णाप्रिया श्रीरुक्मिणी जी का प्रभु में अनन्य प्रेम 3

कृष्णाप्रिया श्रीरुक्मिणी जी का प्रभु में अनन्य प्रेम

कुछ लोग कहते हैं कि इस पत्र में कौन-सी बड़ी बात है? किसी पुरुष के रूप-गुणपर मुग्ध होकर घरवालों की इच्छा के विरुद्ध उसे प्रेमपत्र लिखना कौन-सी अच्छी बात है? परंतु ऐसा कहने वाले सज्जन भूलते हैं। श्रीरुक्मिणीजी ने किसी पार्थिव रूप-गुण पर मुग्ध होकर यह पत्र नहीं लिखा, पत्र के अंतिम श्लोक से स्पष्ट सिद्ध है कि रुक्मिणी किसी राजा या बलवान को नहीं जानती और चाहती थीं। रुक्मिणी जानती थीं देवदेव महादेवादि द्वारा वंदित-चरण कमललोचन साक्षात भगवान श्रीकृष्ण को! रुक्मिणी का त्याग और निश्चय देखिये! इष्ट, पूर्त, दान, नियम, व्रत और देवता-गुरु-ब्राह्मणों की पूजा आदि सबका फल रुक्मिणी केवल एक ही चाहती हैं। यही तो भक्त का निष्कामकर्म है। भक्त के द्वारा दान, यज्ञ, तप आदि सभी कर्म किये जाते हैं, परंतु किसलिये? धन, जन, भोग, स्वर्गादि के लिये नहीं, केवल भगवान को पाने के लिये घर, द्वार, परिवार, भाई-बंधु का ममत्व त्यागकर। इसी प्रकार तो भगवत्प्राप्ति के लिये भक्त को लोकलज्जा और मर्यादा का बाँध तोड़कर आत्मसमर्पण करना पड़ता है। इतने पर भी यदि भगवान नहीं मिलते तो भक्त ऊबता नहीं। उसका निश्चय है कि आज नहीं तो क्या है, 'कभी सौ जन्मों में तो उनका प्रसाद प्राप्त होगा ही।'

जहाँ इतना विशुद्ध और अनन्य प्रेम होता है, वहाँ भगवान आये बिना कभी रह नहीं सकते। अतएव रुक्मिणीजी का पत्र सुनते ही भगवान ने भक्त का संकट हरने के लिये निश्चय कर लिया और ब्राह्मण से कहने लगे- 'भगवन्! जैसे रुक्मिणी का चित्त मुझ में आसक्त है, वैसे ही मेरा भी मन उसी में लग रहा है। मुझे तो रात को नींद भी नहीं आती। मैंने निश्चय कर लिया है कि युद्ध में अधम क्षत्रियों की सेना का मंथन कर उसके बीच से, काष्ठ के भीतर से अग्नि-शिखा के समान, मुझको एकांत-भाव से भजने वाली आनंदितांगी राजकुमारी रुक्मिणी को ले आऊँगा।' वही भक्त सबसे श्रेष्ठ समझा जाता है, जो अपने अंतर के प्रेम की प्रबल इच्छा से भगवान के चित्त में मिलने के लिये अत्यंत व्याकुल्ता उत्पन्न कर दे। इस प्रकार की अवस्था में भगवान भक्त से मिले बिना एक क्षण भी सुख की नींद नहीं सो सकते। जैसे भक्त अपने प्रियतम भगवान के विहर में तारे गिनता हुआ रात बिताता है, वैसे ही भगवान भी उसी के ध्यान में जगा करते हैं; ऐसी स्थिति हो जाने पर भगवत्प्राप्ति में विलम्ब नहीं होता। भगवान दौड़ते हैं इस प्रकार के भक्त को सादर ग्रहण करने के लिये।

भगवान का रुख देखकर चतुर सारथी दारुक उसी क्षण शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नामक चार घोड़े जोतकर रथ ले आया और भगवान ने उस पर सवार होकर रथ बहुत शीघ्र हाँकने की आज्ञा देकर विदर्भ देश के कुण्डिनपुर के लिये प्रस्थान किया। ब्राह्मणदेवता भी साथ ही थे।


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