कृष्णाप्रिया श्रीरुक्मिणी जी का प्रभु में अनन्य प्रेम 6

कृष्णाप्रिया श्रीरुक्मिणी जी का प्रभु में अनन्य प्रेम

मनुष्य राज पद को पाकर ज्ञानशून्य कर्तव्यविमूढ़ होकर अंधा-सा बन जाता है। ऐसे राज्यपद को तो आपके सेवकों ने ही त्याग दिया है, फिर आपकी तो बात ही क्या है? हे भगवन! आपने जो कहा कि 'हमारे आचरण स्पष्ट समझ में नहीं आ सकते।' वह सत्य ही है, आपके चरणकमल के मकरंदा का सेवन करने वाले मुनियों के ही आचरण स्पष्ट समझ में नहीं आते। पशु-समान अज्ञानी मनुष्य जिनकी तर्कना भी नहीं कर सकते। ऐसे आपके अनुगामी भक्तों का चरित्र ही जब इतना अचिंत्य और अलौकिक है, तब आप जो साक्षात ईश्वर हैं, उनके चरित्र का दुर्भोध या अलौकिक होना कोई आश्चर्य नहीं। आपने कहा कि 'हम निष्किञ्चन हैं, निष्किंञ्चन ही हम से प्रेम करते हैं'; अत: हे स्वामिन! जिन ब्रह्मादि देवताओं की सभी पूजा करते हैं, वे भी जब सादर आपको पूजते हैं तब आप निष्किञ्चनति नहीं हैं, परंतु एक तरह से आप निष्किञ्चन ही है; क्योंकि आप से भिन्न कुछ है ही नहीं।

जो लोग धन-सम्पत्ति मद से अंधे हो रहे हैं और केवल अपने शरीर के पालन पोषण में ही रत हैं, वे आप काल रूप को नहीं जानते। आप पूजनीयों में सबसे श्रेष्ठ हैं, जगत-पूज्य ब्रह्मादि आपको इष्टदेव मानकर पूजते हैं, उनके आप प्रिय हैं और वे आपके प्रिय हैं। आप सम्पूर्ण पुरुषार्थ और परमानंद स्वरूप हैं, आपको प्राप्त करने की अभिलाषा से श्रेष्ठ बुद्धिवाले लोग सब वस्तुओं का त्याग कर देते हैं। हे विभो! ऐसे श्रेष्ठ बुद्धि वाले पुरुषों से ही आपका सेव्य-सेवक-संबंध उचित है; स्त्री-पुरुष-रूप सम्बंध योग्य नहीं है, कारण कि इस सम्बंध में आसक्ति के कारण प्राप्त हुए सुख-दु:खों से व्याकुल होना पड़ता है। इसलिये आपका यह कहना कि समान लोगों में ही मित्रता और विवाह होना चाहिये, यह ठीक ही है। 'नारदादि के मुख से प्रशंसा सुनकर मुझे वर लिया', अत: हे भगवान! ऐसे सर्वत्यागी मुनिगुण ही आपके प्रभाव को जानते और कहते हैं, यह समझकर ही मैंने आपको वरण किया है।

आपने कहा कि 'तुम दूरदर्शिनी नहीं हो' सो प्रभो! आपकी भ्रुकुटियों के बीच से उत्पन्न काल के वेग से जिनके समस्त विषय-भोग नष्ट हो जाते हैं-ऐसे ब्रह्मादि देवताओं को भी मैंने पति बनाना उचित और श्रेष्ठ नहीं समझा तो शिशुपालादि तुच्छ लोगों कि बात ही क्या है? गदग्रज! हे प्रभो! सिंह जैसे अपनी गर्जना से पशुपालकों को भगाकर अपना आहार ले जाता है, वैसे ही आप शांर्गधनुष के शब्द से राजाओं को भगाकर अपना भाग जो मैं हूँ, उसे हर लाये हैं; ऐसे आप उन राजाओं के भय से समुद्र की शरण में आकर बसे हैं-यह कहना ठीक नहीं है। भगवन! आप सब गुणों की खान हैं, आपके चरणकमलों के मकरंद-सुगंध का वर्णन साधुगुणों द्वारा किया गया है। लक्ष्मी सदा उसका सेवन करती हैं, भक्तजन उससे मोक्ष पाते हैं। ऐसे चरणकमलों के मकरंद की सुगंध पाकर अपने प्रयोजन को विवेक-बुद्धि से देखने वाली कौन ऐसी स्त्री होगी, जो आपको छोड़कर किसी मरणशील और काल के भय से सदा शंकित दूसरे पार्थिव पुरुष का आश्रय लेगी?

अतएव आपने जो यह कहा कि 'दूसरा पुरुष ढूँढ़ सकती हो' वह ठीक नहीं है। आप जगत के अधिपति और सब के आत्मा हैं, इस लोक और परलोक में सब अभिलाषाएँ पूरी करने वाले हैं, मैंने योग्य समझकर ही आपको पति बनाया है। मेरी यह प्रार्थना है कि मैं देवता, पशु, पक्षी आदि किसी भी योनि में भ्रमण करूँ, परंतु सर्वत्र आप ही के चरणों की शरण में रहूँ। नाथ! जो लोग आपको भजते हैं, आप समदर्शी और नि:स्पृह होते हुए भी उनको भजते हैं, और आपको भजने से ही इस असार-संसार से मुक्ति मिलती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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