कृष्णाप्रिया श्रीरुक्मिणी जी का प्रभु में अनन्य प्रेम
श्रीरुक्मिणीजी ने सारी रात जागते हुए बितायी, सूर्योदय होने को आया, ब्राह्मण नहीं लौटे, रुक्मिणी की विरह-व्यथा उत्तरोत्तर बढ़ रही थी, वे मन में इस प्रकार चिंता करने लगीं कि 'अहो! रात बीत गयी, सबेरे मुझ अभागिनी के विवाह का दिन है। कमललोचन भगवान श्रीकृष्ण अब तक नहीं आये, न ब्राह्मण देवता ही लौटे? क्या उन अनिंदितात्मा श्रीकृष्ण ने मुझ में कहीं कोई निंदनीय बात देखी है? क्या इसीलिये वे मेरे पाणिग्रहण का उद्योग करके नहीं पधारते? क्या भगवान, विधाता और महादेव मुझ अभागिनी के प्रतिकूल हैं? क्या भगवती गिरिजा, रुद्राणी, गौरी भी मेरे अनुकूल नहीं हैं?' इस प्रकार चिंता करती हुई श्रीरुक्मिणीजी, जिनका चित्त केवल गोविंद की चिंता से ही भरा हुआ है, जिनके नेत्रों से आँसू बह रहे हैं, अपने उन नेत्रों को मूँदकर भगवान हरि का ध्यान करने लगीं!
भगवान श्रीकृष्ण के ध्यान में मग्न होते ही रुक्मिणीजी के बाँह, ऊरु, भुजा और नेत्र आदि अंग भावी प्रियकी सूचना देते हुए फड़क उठे और उसी क्षण भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन का प्रिय समाचार लेकर वही वृद्ध ब्राह्मण आ पहुँचे। भगवान की आगमन-वार्ता सुनकर रुक्मिणीजी को आनंद हुआ वह वर्णनातीत है। श्रीकृष्ण और बलदेव का आगमन सुनकर रुक्मिणी के पिता राजा भीष्मक ने उनके स्वागत और अतिथी-सत्कार का पूरा प्रबंध किया। भगवान की भुवनमोहन रूपराशि को निरखकर नगर के नर-नारियों का चित्त उसी में रम गया और सभी प्रेम के आँसू बहाते हुए कहने लगे कि 'यदि हमने कभी कुछ भी सुकृत किया हो तो त्रिलोक के विधाता अच्युत भगवान् कुछ ऐसा करें कि ये मनमोहन अनूपरूप-शिरोमणि श्रीकृष्ण ही रुक्मिणी का पाणिग्रहण करें।'
श्रीरुक्मिणीजी अंबिका की पूजा के लिये गयीं। वहाँ देवी का पूजन कर बड़ी-बूढ़ियों से आशीर्वाद प्राप्त कर बाहर आकर अपने रथ पर चढ़ना ही चाहती थीं कि इतने ही में माधव श्रीकृष्णचंद्र ने आकर शत्रुओं की सेना के सामने ही गरुड़चिह्नयुक्त अपने रथ पर तुरंत ही रुक्मिणी को चढ़ा लिया और चल दिये। लोगों ने पीछा किया, परंतु किसी की कुछ भी नहीं चली, भगवान और बलदेवजी शत्रुओं का दर्पदलन कर देवी रुक्मिणी सहित द्वारका में आ पहुँचे और वहाँ विधिपूर्वक विवाह-संस्कार सम्पन्न हुआ। श्रीकृष्ण को रुक्मिणी से[1] मिलते देखकर पुरवासियों को परम आह्लाद हुआ। भक्त और भगवान के मिलन-प्रसंग में किसे आनंद नहीं होता? अनन्यगति श्रीरुक्मिणीजी निरंतर भगवान की सेवा में रत रहतीं। एक दिन भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्नतापूर्वक मंद-मंद मुस्कराते हुए रुक्मिणी से कुछ ऐसी रहस्ययुक्त बातें कहीं, जिसे सुनकर रुक्मिणीजी थोड़ी देर के लिये व्याकुल हो गयीं। अपना समस्त ऐश्वर्य सौंपकर भी भगवान समय-समय पर भक्त की यों परीक्षा लिया करते हैं, वह इसलिये कि भक्त कहीं ऐश्वर्य के मद में मत्त होकर प्रेम की अनिर्वचनीय स्थिति च्युत न हो जाय। यद्यपि श्रीरुक्मिणीजी के लिये ऐसी कोई आशंका नहीं थी, तथापि भगवान् ने अपने भक्तों का महत्त्व बढ़ाने और जगत् को सच्चे प्रेम की अनुपम शिक्षा देने के लिये रुक्मिणीजी की वाणी से भगवत्प्रेम का तत्त्व कहलाना चाहा और इसलिये उनसे रहस्य युक्त वचन कहे। भगवान बोल- 'हे राजकुमारी! लोकपालों के समान धनसम्पन्न महानुभाव, श्रीमान तथा रूप और उदारता से युक्त महान बली नरपति तुमसे विवाह करनाचाहते थे। कामोन्मत्त शिशुपाल तुम्हें ब्याहने के लिये बारात लेकर आ पहुँचा था; तुम्हारे भ्राता आदि ने भी तुम्हारा विवाह शिशुपाल के साथ करने का निश्चय कर लिया था तो भी तुमने सब प्रकार से अपने योग्य उन राजकुमारों को छोड़कर; जो किसी बात में तुम्हारे समान नहीं है-ऐसे मुझ-जैसे को अपना पति क्यों बनाया?
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो श्रीलक्ष्मीजी का अवतार हैं
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