योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
नवाँ अध्याय
मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण
कृष्ण द्वारा कंस-वध का समाचार जब जरासंध को मिला तो वह क्रोधांध हो गया और यादवों का नाश करने के लिए लड़ाई की आज्ञा दे दी और अगणित सेना लेकर मथुरा पहुँचा। जरांसध की चढ़ाई की खबर सुनकर मथुरा वालों ने श्रीकृष्ण व बलराम को याद किया क्योंकि इस चढ़ाई के मूल कारण श्रीकृष्ण ही थे। अतएव इस युद्ध के समय उन्हें अपने वंश की सहायता करना आवश्यक प्रतीत हुआ। इसलिए वह और बलराम जरांसध से पहले मथुरा आ पहुँचे और बड़ी शूरता से अपनी जन्मभूमि और उसके राजा उग्रसेन की रक्षा में तत्पर हुए। यद्यपि जरासंध की सेना के सामने यादवों की गिनती बहुत कम थी और उस महान सामर्थ्य वाले राजा के सम्मुख इनके राज्य की कुछ तुलना भी नहीं थी, पर वे अपने नगर और राजा के लिए जी जान से ऐसे लड़े कि उन्होंने जरासंध की सेना के दाँत खट्टे कर दिए। जरासंध इतना निराश हुआ कि उसने मथुरा का घेरा उठा लिया और चलता बना। इसी प्रकार अठारह बार उसने आक्रमण किया पर हर बार निष्फल रहा। अन्तिम बार वह बड़ी तैयारी से आया और अपने साथ अपने अधीन राजाओं को भी लेता आया। इस चढ़ाई की खबर पाकर यादवों को बड़ी चिन्ता हुई, पर कृष्ण की सलाह से यह निश्चय किया गया कि इस अगणित सेना से लड़ना मानो अपने आपका बलिदान देना है। बारह बार जरासंध ने म्लेच्छों की सहायता ली है। अब उससे मुकाबला करना मानो अपना बल तोड़ना है। इस बात को विचारकर सबने यही निश्चय किया कि मथुरा छोड़कर किसी और स्थान की शरण लेनी चाहिए। इन्हीं बातों को विचार तथा अपनी धन-सम्पत्ति को ले उन्होंने मथुरा को छोड़ दिया और पश्चिम में समुद्र के किनारे गुजरात प्रदेश में द्वारिका नामक एक स्थान को अपने वास के लिए चुना। यह शहर पहाड़ की घाटी में बसा हुआ था। यहाँ कृष्ण ने एक टापू में द्वारिकापुरी की नींव डाली। यह पुरी अब तक स्थित है और हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ है। यहाँ यादवों ने एक मजबूत दुर्ग बनाया और अपने पहरे चौकी का पूरा प्रबन्ध करके[1] रहने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जब युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से राजसूय यज्ञ करने का विचार प्रकट किया और आज्ञा माँगी, तो कृष्ण ने कहा कि हे राजन! जरासंध ने यहाँ के सारे राजा-महाराजाओं को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया है। बहुतेरी जातियाँ उसके भय से देश छोड़कर भाग गई हैं। उसकी सेना में अगणित वीर योद्धागण इकट्ठे हो गए हैं। जब तक तुम उसे नहीं जीत लेते राजसूय यज्ञ नहीं कर सकते। इसी प्रसंग में उन सब युद्धों का वर्णन किया जो उन्होंने और उनके वंश वालों ने जरासंध से किये थे और जिनसे व्याकुल होकर अन्त में उन्हें द्वारिका की ओर भागना पड़ा था। इस बातचीत से विदित होता है कि उस समय अकेले यादव वंश में 18 हजार भाई-भतीजे मौजूद थे जो सबके सब शस्त्रधारी और लड़ने-भिड़ने में निपुण थे। इसी बातचीत में श्रीकृष्ण ने कहा कि द्वारिकापुरी के इर्द गिर्द पहाड़ों का घेरा है जो तीन योजन है। हर एक योजन में 21 छावनियाँ और 100 द्वार बनाए गए थे, जहाँ पर शस्त्रधारी यादव सेना रक्षा के लिए नियत थी। एक योजन चार कोस का होता है।
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