गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
तीसरा अध्याय
कर्मयोग
अर्जुन उवाच अर्जुन बोले- हे जनार्दन ! यदि आप कर्म की अपेक्षा बुद्धि को अधिक श्रेष्ठ मानते हैं तो, हे केशव ! आप मुझे घोर कर्म में क्यों लगाते हैं ? टिप्पणी- बुद्धि अर्थात समत्व बुद्धि। वयामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे। अपने मिले-जुले वचनों से मेरी बुद्धि को आप शंकाग्रस्त- सी कर रहे हैं। अत: आप मुझे एक ही बात निश्चयपूर्वक कहिए कि जिससे मेरा कल्याण हो। टिप्प्णी- अर्जुन उलझन में पड़ जाता है; क्योंकि एक ओर से भगवान उसे शिथिल हो जाने का उलाहना देते हैं और दूसरी ओर से दूसरे अध्याय के 49वें, 50 वें श्लोकों में कर्मत्याग का आभास मिलता है। गंभीरता से विचारने पर ऐसा नहीं है, यह भगवान आगे बतलायंगे। लोकेऽस्मिन्द्विविद्या निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। श्री भगवान बोले- हे पापरहित ! इस लोक में मैंने पहले दो अवस्थाएं बतलाई हैं - एक तो ज्ञानयोग द्वारा सांख्यों की, दूसरी कर्मयोग द्वारा योगियों की। न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते। कर्म का आरंभ न करने से मनुष्य निष्कर्मता का अनुभव नहीं करता है और न कर्म के केवल बाहरी त्याग से मोक्ष पाता है। टिप्पणी- निष्कर्मता अर्थात मन से, वाणी से और शरीर से कर्म न करने का भाव। ऐसी निष्कर्मता का अनुभव कर्म न करने से कोई नहीं कर सकता। तब इसका अनुभव कैसे हो सो अब देखना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज