गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
तीसरा अध्याय
सोमप्रभात स्थितप्रज्ञ के लक्षण सुनकर अर्जुन को ऐसा लगा कि मनुष्य को शांत होकर बैठ रहना चाहिए। उसके लक्षणों में कर्म का तो नाम तक भी उसने नहीं सुना। इसलिए भगवान से पूछा,ʻʻआपके वचनों से तो लगता है कि कर्म से ज्ञान बढ़कर है। इससे मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है। यदि ज्ञान अच्छा हो तो फिर मुझे घोर कर्म में क्यो उतार रहे हैं ? मुझे साफ कहिए कि मेरा भला किसमें है?" तब भगवान ने उत्तर दिया: ʻʻहे पापरहित अर्जुन ! आरंभ से ही इस जगत में दो मार्ग चलते आये हैं: एक में ज्ञान की प्रधानता है और दूसरे में कर्म की। पर तू स्वयं देख ले कि कर्म के बिना मनुष्य अकर्मी नहीं हो सकता, बिना कर्म के ज्ञान आता ही नहीं, सब छोड़कर बैठ जाने वाला मनुष्य सिद्ध पुरुष नहीं कहला सकता। तू देखता है कि प्रत्येक मनुष्य कुछ-न-कुछ तो करता ही है। उसका स्वभाव ही उससे कुछ करावेगा। जगत का यह नियम होने पर भी जो मनुष्य हाथ-पांव ढीले करके बैठा रहता है और मन में तरह-तरह के मनसूबे करता रहता है, उसे मूर्ख कहेंगे और वह मिथ्याचारी भी गिना जायगा। क्या इससे यह अच्छा नहीं है कि इंद्रियों को वश में रखकर, राग-द्वेष छोड़कर, शोर-गुल के बिना आसक्ति के बिना अर्थात अनासक्त भाव से, मनुष्य हाथ-पांवों से कुछ कर्म करे, कर्मयोग का आचरण करे? नियत कर्म - तेरे हिस्से में आया हुआ सेवा-कार्य - तू इंद्रियों को वश में रखकर करता रह। आलसी की भाँति बैठे रहने से यह कहीं अच्छा है। आलसी होकर बैठे रहने वाले के शरीर का अंत में पतन हो जाता है। पर कर्म करते हुए इतना याद रखना चाहिए कि यज्ञ-कार्य के सिवा सारे कर्म लोगों को बंधन में रखते हैं। यज्ञ के मानी हैं, अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरे के लिए, परोपकार के लिए, किया हुआ श्रम अर्थात संक्षेप में, ʻसेवाʼ, और जहाँ सेवा के निमित्त ही सेवा की जायगी, वहाँ आसक्ति, राग-द्वेष नहीं होगा। ऐसा यज्ञ, ऐसी सेवा, तू करता रहा। ब्रह्मा ने जगत उपजाने के साथ-ही-साथ यज्ञ भी उपजाया, मानो हमारे कान में यह मंत्र फूंका कि पृथ्वी पर जाओ, एक-दूसरे की सेवा करो और फूलो-फलो, जीवमात्र को देवता रूप जानो, इन देवों की सेवा करके तुम उन्हें प्रसन्न रखो, वे तुम्हें प्रसन्न रखेंगे। प्रसन्न हुए देव तुम्हें बिना मांगे मनोवांछित फल देंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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