गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
दूसरा अध्याय
इससे विपरीत करने वाले के हाल भी मुझसे सुन। जिसकी इंद्रियों स्वच्छंद रूप से बरतती हैं, वह नित्य विषयों का ध्यान धरता है। तब उसमें उसका मन फंस जाता है। इसके सिवा उसे और कुछ सूझता ही नहीं। ऐसी आसक्तियों से काम पैदा होता है। बाद को उसकी पूर्ति न होने पर उसे क्रोध आता है। क्रोधातुर तो बावला-सा हो ही जाता है, आपे में नहीं रह जाता। अत: स्मृति भ्रंश के कारण जो-सा बकता और करता है। ऐसे व्यक्ति का अंत में नाश के सिवा और क्या होगा? जिसकी इंद्रियां यों भटकती फिरती हैं, उसकी हालत पतवार-रहित नाव की-सी हो जाती है। चाहे जो हवा नाव को इधर-उधर घसीट ले जाती है और अंत में किसी चट्टान से टकराकर नाव चूर हो जाती है। जिसकी इंद्रियां भटका करती हैं, उसके ये हाल होते हैं। अत: मनुष्य को कामनाओं को छोड़ना और इंद्रियों पर काबू रखना चाहिए। इससे इंद्रियां न करने योग्य कार्य नहीं करेंगी, आंखें सीधी रहेंगी, पवित्र वस्तु को ही देखेंगी, कान भगवद्-भजन सुनेंगे, या दु:खी की आवाज सुनेंगे। हाथ-पांव सेवा-कार्य में रुके रहेंगे और ये सब इंद्रियां मनुष्य के कर्तव्य-कार्य में ही लगी रहेंगी और उसमें से उन्हें ईश्वर की प्रसादी मिलेगी। वह प्रसादी मिली कि सारे दु:ख गये समझो। सूर्य के तेज से जैसे बर्फ पिघल जाती है, वैसे ईश्वर-प्रसादी के तेज से दु:खमात्र भाग जाते हैं और ऐसे मनुष्य को स्थिरबुद्धि कहते हैं। पर जिसकी बुद्धि स्थिर नहीं है, उसे अच्छी भावना कहाँ से आवेगी? जिसे अच्छी भावना नहीं, उसे शांति कहां? जहाँ शांति नहीं, वहाँ सुख कहां? स्थिरबुद्धि मनुष्य को जहाँ दीपक की भाँति साफ दिखाई देता है, वहाँ अस्थिर मनवाले दुनिया की गड़बड़ में पड़े रहते हैं और देख ही नहीं, सकते, और ऐसी गड़बड़ वालों को जो स्पष्ट लगता है, वह समाधिस्थ योगी को स्पष्ट रूप से मलिन लगता है और वह उधर नजर तक नहीं डालता। ऐसी योगी की तो ऐसी स्थिति होती है कि नदी-नालों का पानी जैसे समुद्र में समा जाता है, वैसे विषय मात्र इस समुद्र-रूप योगी में समा जाते हैं। और ऐसा मनुष्य समुद्र की भाँति हमेशा शांत रहता है। इससे जो मनुष्य सब कामनाएं तजकर, निरहंकार होकर, ममता छोड़कर तटस्थ रूप से बरतता है, वह शांति पाता है। यह ईश्वर-प्राप्ति की स्थिति है और ऐसी स्थिति जिसकी मृत्यु तक टिकती है, वह मोक्ष पाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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