विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
चौथा अध्याय
द्वारकालीला
एकादश प्रकरण
भगवान का इन्द्रप्रस्थ से जाना
इन्द्रप्रस्थ की स्त्रियों द्वारा कृत स्तुति[1]
(भगवान् के तेज और सुंदरता से विस्मित हुई सखियों से अन्य सखियाँ कहती हैं कि इनके रूप और तेज को देखकर विस्मय नहीं करना चाहिए क्योंकि ये साक्षात ईश्वर हैं) ये श्रीकृष्ण वही पुरातन पुरुष हैं जो गुणो में क्षोभ होने से पहले (सृष्टि के पूर्व) अपने निर्विशेष स्वरूप में स्थित तथा ‘एकमेवाद्वितीयम्’ (एक ही अद्वितीय) रूप से प्रसिद्ध था और इसी प्रकार प्रलय में जब सब शक्तियाँ ईश्वर मं लीन हो जाती हैं तब वे ही शेष रह जाते हैं।।21।। (सृष्टि के पूर्व और प्रलय के अनन्तर की निष्प्रपञ्च अवस्था का वर्णन करके अब इन दोनों के बीच की अवस्था का वर्णन करते हैं-) वे ही अपनी निष्प्रपञ्च आत्मा में अधिष्ठित ईश्वर फिर सृष्टि प्रवाह को कायम रखने के लिए अपनी कालशक्ति से प्रेरित अपने अंशभूत जीवों को मोहित करने वाली अपनी मायाशक्ति को अंगीकार करके, नामरूप रहित जीवात्मा के भोग के लिए उपाधि (नामरूप) को उत्पन्न करते हैं और कर्म करने के लिए वेद को प्रकाशित करते हैं।।22।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भा. 1।10
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