विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
दूसरा अध्याय
माधुर्यलीला
तृतीय प्रकरण
रास का आह्वान्[1]
नागपत्नियों द्वारा की हुई स्तुति
कुर्वन्ति हि त्वयि रतिं कुशलाः स्व आत्मन् अब माधुर्य भक्ति के अंतर्गत रासलीला का प्रकरण आरंभ करते हैं। श्रीमद्भागवत के द्रष्टा पूज्यपाद श्रीधरस्वामी जी का मत है कि इस रासपंचाध्यायी से भगवान का काम-विजय सूचित होता है। ब्रह्मा एवं इन्द्रादि काम से हार गये[3]थे किन्तु भगवान ने कोटिशः गोपियों के यूथ के साथ रहकर भी काम को जीत लिया! ये गोपियाँ सुंदरता, तारुण्य और हाव-भाव में उर्वशी से भी बढ़-चढ़कर थीं। पूज्यपाद श्रीधरस्वामी जी ने चार स्थलों से चार उक्तियाँ उद्धृत करके यह सिद्ध कर दिया कि भगवान स्वतंत्र हैं और जो रासक्रीड़ा हुई वह सब माया का कार्य था। अथवा भगवान ने माया का आश्रय लेकर क्रीड़ा की और आप स्वतंत्र रहे। उपर्युक्त चार उक्तियों में प्रथम तो ‘योगमायामुपाश्रितः’[4] है। इन शब्दों से प्रतीत होता है कि भगवान् ने जो एक रात्रि में कई रात्रियाँ दिखायीं, थोड़े से संकीर्ण स्थान में शतकोटि गोपियों के यूथ के साथ नृत्य किया और अकेले होकर इतनी गोपियों के साथ एक काल में क्रीड़ा की यह सब माया का आश्रय लिये बिना नहीं हो सकता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भा. स्क. 10 अ. 28, 29।
- ↑ अर्थ इसी प्रकरण के श्लोक 33 की टीका में देखिये।
- ↑ अहल्यायां जारः सुरपतिरभूदात्मतनयां
प्रजानाथोऽयासीदभजत गुरोरिन्दुरबलाम्।
इति प्रायः को वा न पदमपथेऽकार्यत मया-
श्रमो मद्वागणानां क इव भुवनोन्माथविधिषु।।इति।। - ↑ भा. 10।29।1।
इस श्लोक में ‘ता रात्रीः’ शब्द बहुवचनान्त है, इससे सूचित होता है कि रासक्रीड़ा में केवल एक रात्रि में ही अनेक रात्रियाँ प्रतीत हुई थीं।
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