विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
चौथा अध्याय
द्वारकालीला
अष्टम प्रकरण
सुदामा का चरित्र और वसुदेव जी का यज्ञ[1]
[2]सुदामा तथा ऋषियों द्वारा की गयी स्तुति
प्रायः सब खलों का वध हो चुका था केवल शाल्व, दन्तवक्त्र और विदूरथ बचे थे। इनकी भी भगवान ने अंत कर दिया और आनन्द से द्वारका में रहने लगे। एक समय की बात है कि भगवान का सहपाठी और बालकाल का मित्र सुदामा नाम का ब्राह्मण स्त्री के बहुत कहने-सुनने पर भगवान से मिलने के लिए आया। यह ब्राह्मण अतिदीन और दरिद्र था। मलिन वस्त्र ओढ़े अपनी काँख में एक फटे कपड़े से बँधी कुछ चावल (चूड़ा) की पोटली छिपाये भगवान के समीप उपस्थित हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भा. स्क. 10 अ. 76 से 84 तक।
- ↑ भा. स्क. 10 अ. 81 के अंतर्गत सुदामा जी कृत स्तुति का अर्थ-
[भगवान् श्रीकृष्ण का अपने भक्तों में अतिशय प्रेम देखकर उनकी भक्ति की प्रार्थना करते हैं-] मुझे अनेक जन्म जन्मान्तरों में उन्हीं भगवान् कृष्ण का प्रेम, हितवार्ता, उपकारकता और सेवकत्व प्राप्त हो। उन्हीं महानुभाव कृष्ण के साथ विशेषरूप से आसक्ति को प्राप्त हुआ मैं उनके भक्तों की अमूल्य संगति को प्राप्त होऊँ..36।।
(शंका- भक्ति का फल संपत्ति जब मिल चुकी तो फिर भक्ति की प्रार्थना क्यों करते हो? समाधान-) धनी पुरुषों की मदजनित अधोगति को देखते हुए स्वयं विचारवान् भगवान् अपने भक्तों को धन-संपत्ति, ऐश्वर्य और पुत्र कलत्र आदि नहीं देते। मुझ अविवेकी में भक्ति न देखकर ही भगवान् ने यह सब धन दौलत मुझे दिया है। अतः मैं केवल भक्ति ही चाहता हूँ।।37।।
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