विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
पहला अध्याय
बाललीला
प्रथम प्रकरण
भगवान का अवतार[1]
देवगणकृत स्तुति
अखिल शास्त्रवेत्ता विद्वानों का मत है कि स्ववर्णोचित नित्य-नैमित्तिक वैदिक कर्म करते हुए श्रीभगवान की लीलाओं का चिन्तन और उनके नामों का उच्चारण करते रहना चाहिए। इससे अंतःकरण भगवदाकार हो जाता है और भक्तिशास्त्र में यही पुरुषार्थ माना गया है। यहाँ शंका होती है कि ईश्वर व्यापक, निर्गुण और निराकार है इसलिए उसका कोई नाम या चरित्र होना संभव नहीं है। अतः भगवद्भक्ति पुरुषार्थ की साधन नहीं हो सकती ।[3] यह शंका यदि वह पुरुष करे जो सप्तम भूमिका में स्थित है तो उसके लिए यह उत्पन्न हो सकती है। उस अवस्था में तो ब्रह्मा के सिवा किसी और वस्तु का भान ही नहीं होता। किन्तु श्रीमद्भगवतगीता का कथन है कि देहधारियों को अद्वैतबुद्धि होनी बहुत दुर्लभ है।[4] हम को सृष्टि की प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है। अतः मानना पड़ेगा कि सृष्टि का कर्ता कोई है, वही अन्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् तथा सब भूतों की योनि[5]है। यही हुआ सगुणोपाधिक ईश्वर है। इन्हीं गुणों का समावेश ‘माया’ शब्द में है, यह माया अनादि सान्त है अर्थात् किसी समय इसका लय हो जाता है; किन्तु यह है कि ईश्वर के वश में। इसी का आश्रय करके ईश्वर सब प्रकार के आश्चर्युक्त कर्म करता है। भगवान श्रीकृष्ण के अद्भुत कर्म इस माया के ही कारण हैं। जीव भी ईश्वर का अंश है किन्तु यह पड़ा है माया के वश में। वेदान्त में जीवन संबंधी माया का नाम अविद्या है। इसी अविद्या का कार्य है आवरण और विक्षेप, जिससे यह जीव अपने अंशी ईश्वर से पृथक सा हो गया है। इस आवरण और विक्षेप को अलग करने के लिए ही उपासना की आवश्यकता है। भगवान ने अपने श्रीमुख से ही कहा है कि जो मेरी शरण में आते हैं अर्थात मेरी उपासना करते हैं वे इस माया को पार कर लेते हैं ।[6] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत पुराण 10।1 और 2
- ↑ अर्थ इसी प्रकरण के श्लोक 37 की टीका में देखिये।
- ↑ यथा श्रुतिः ‘अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययम्’ (कठ. 3।15 मुक्तिकोप. 2।72) ‘अस्थूलमनण्वह्रस्वमदीर्घम्’ (बृ. 3।8।8)
- ↑ अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते। (गीता 12।5)
- ↑ यथा श्रुतिः ‘सर्वकर्मा सर्वकामः सर्वगन्धः सर्वरसः’ (छा. 3।14।2) ‘मनोमयः प्राणशरीरों भारूपः’ (छा. 3।14।2) ‘स क्रन्तु कुर्वीत’ (छा. 3।14।1) ‘एष सर्वेश्वर एष सर्वत्र एषोऽन्तर्याम्येष योनिः। सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम्’ (मा. 1।6)
- ↑ दैवी ह्योषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। (गीता। 7।14)
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