विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
चौथा अध्याय
द्वारकालीला
पंचम प्रकरण
पौण्ड्रक और राजा
नृग का उद्धार
नृगकृत स्तुति
तदनन्तर काशिराज के पुत्र सुदक्षिण ने अभिचार (मारण) मंत्र का प्रयोग कर अग्निकुण्ड में हवन किया। उससे एक उल्का (कृत्या) निकलकर द्वारका को जलाने लगी। किन्तु भगवान के सुदर्शन चक्र चलाने पर वह कृत्या उलटी वाराणसी में लौट गयी और उसने सुदक्षिण तथा सब ऋत्विजनों के सहित संपूर्ण पुरी को भस्म कर दिया। भगवान ने द्वारका में कई और प्राणियों का भी उद्धार किया जिनमें विशेष उल्लेखनीय राजा नृग का वृत्तान्त है। राजा नृग इक्ष्वाकु के सुपुत्र थे और बड़े दानी थे। वे नित्यप्रति अलंकारों से विभूषित एक सहस्र दूध देने वाली गौएं वेदज्ञ ब्राह्मणों को दान दिया करते थे। केवल गौ ही नहीं, किन्तु भूमि, सुवर्ण, घर, घोड़े हाथी, दासी सहित कन्याएँ, चाँदी, शय्या, वस्त्र, रत्न इत्यादि भी दान करते थे। उन्होंने अग्निष्टोमादि कई यज्ञ भी किये, तथा बावड़ी, कुएँ, तालाब और देवस्थान भी बनवाये। एक समय किसी प्रतिग्रह न लेने वाले ब्राह्मण की गौ बछड़े सहित अपने स्थान से खुलकर राजा नृग की गायों में आ मिली और उसने बिना जाने वह गौ दूसरे ब्राह्मण को दे दी। उस गाय के स्वामी ने अपनी गाय एक ब्राह्मण को ले जाते देखकर कहा कि यह गाय मेरी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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