विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
दूसरा अध्याय
माधुर्यलीला
अष्टम प्रकरण
परिशिष्ट
माधुर्य-भक्ति
उद्धव जी कृत गोपी स्तुति
यदि मन का निरोध कर लिया जाय तो तीनो अवस्थाओं का लय होकर आत्मज्ञान हो जायेगा। अतः तुम्हें मेरा ज्ञानमय स्वरूप प्राप्त करना चाहिए और मेरा जो सौंदर्य, माधुर्यादि स्वरूप सगुण विग्रह है उसको स्वप्नवत् मृषा समझकर उसकी उपेक्षा करनी चाहिए। पुरुष जब स्वप्न से जागता है और उसका मन सावधान हो जाता है तब समझता है कि मैंने अपने ही मन की कल्पना से स्वप्न के पदार्थ देखे हैं और वे सब मिथ्या हैं, यही न्याय जाग्रत के पदार्थों में भी उपयुक्त है। यदि मन पदार्थों से हटा लिया जाय तो जाग्रत के पदार्थ भी मिथ्या प्रतीत होंगे। ‘इस कारण आलस्य को छोड़कर मन का निरोध करना चाहिए। यही सिद्धांत वेद, योग और सांख्यशास्त्रों का है। यही ध्येय, त्याग तप, दया, सत्य आदि अनुष्ठान करने का है, अब मैं सुदूर मथुरा में रहूँगा तो तुम मेरा अधिक चिन्तन करोगी। यह नियम है कि प्रेमियों का ध्यान जैसे निश्चल भाव से परदेश में रहने वाले पति में लगा रहता है, वैसा समीपस्थ पति में नहीं रहता। अतः तुम सकल व्यापारों से छूटे हुए अपने मन को पूर्ण रीति से मेरे ऊपर स्थिर करो, मेरा ही चिन्तन करो, इससे तुम शीघ्र ही मेरे स्वरूप को प्राप्त करोगी।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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