भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यहाँ यह शंका हेाती है कि इस अप्राकृत चन्द्रमा की वस्तुतः आवश्यकता क्या थी? यदि भगवान के रचे हुए नवीन अप्राकृत मन का नियमन करने के लिये इसकी आवश्यकता मानी जाय तो ठीक नहीं; क्योंकि भगवान तो सर्वशक्तिमान हैं, वे स्वयं ही उस मन को कार्य सम्पादन की योग्यता प्रदान कर सकते थे। यदि कहें कि व्रजांगनाओं के मनों के अधिष्ठाता जो प्राकृत चन्द्रमा हैं, वे नक्षत्रों के रूप में उदित हैं, उनकी रक्षा करने के लिये भी भगवान के अप्राकृत मन के अधिष्ठाता अप्राकृत चन्द्रमा का उदय हुआ है, तो ऐसा मानना भी ठीक नहीं; क्योंकि उनका नियमन भी भगवान स्वयं ही कर सकते थे। यदि उद्दीपन के लिये इसका उदय माना जाय तो भगवान को इसके लिये भी किसी साधन की अपेक्षा नहीं है, और यदि अन्धकार की निवृत्ति के लिये इसका उदय मानें तो यह काम भी प्राकृत चन्द्रमा से ही निष्पन्न हो सकता था; अतः इसके उदय का प्रधान प्रयोजन क्या था, यह प्रश्न बना ही रहता है। इस श्लोक में इसका प्रयोजन ‘चर्षणीनां शुचःमृजन्’ बतलाया है। इसकी व्याख्या श्रीवल्लभाचार्य जी इस प्रकार करते हैं- ‘चर्षणयः परिभ्रमणशक्तयः तासां शुचः मृजन्’ अर्थात परिभ्रमण-शक्तियाँ ही चर्षणी हैं, उनका शोक निवृत्त करने के लिये इस अप्राकृत चन्द्र का उदय हुआ। ये परिभ्रमण-शक्तियाँ आनन्द की खोज में सारे संसार में भ्रमण करती रहीं, परन्तु आनन्द से इनका कहीं भी संयोग न हुआ। इन्होंने समस्त जीवों में जा-जाकर देखा, परन्तु इन्हें कहीं भी परमानन्द की प्राप्ति नहीं हुई। जो जीव मुक्त होने पर परमानन्द में स्थित होते हैं उनसे इस शक्तियों का सम्बन्ध नहीं रहता। इसलिये इन्हें कहीं भी परमानन्द की प्राप्ति नहीं हुई। अतः ‘चर्षणीनां शुचः मृजन्’ इसका अर्थ है परिभ्रमण-शक्तियुक्त जीवों के शोक का मार्जन करता हुआ। अर्थात अभिप्राय यह है कि जीव ब्रह्मानन्द का रसास्वादन तो समस्त प्राकृत सम्बन्धों से रहित होकर ही कर सकता था, इनसे युक्त रहते हुए उसमें परमानन्द-रसास्वादन का सामर्थ्य था ही नहीं। इस अभाव की पूर्ति करने के लिये ही पूर्ण परब्रह्म परमात्मा दिव्यमंगलमय विग्रह में आविर्भूत हुए। उनके साथ उनकेन अप्राकृत रमण के लिये अप्राकृत सामग्री और वैसे ही आलम्बन तथा उद्दीपन विभावों का भी आविर्भाव हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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