भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसी से यह देखा जाता है कि यद्यपि भगवान ने अपने कई भक्तों को स्वात्मसमर्पण किया है तो भी उनमें कोई च्युति नहीं हुई; वे ज्यों-के-त्यों अविकारी ही बने हुए हैं। श्रीब्रह्मा जी कहते हैं-
अर्थात- हे देव! आप इन घोष-निवासियों को क्या देंगे? आप विश्वफलात्मा हैं; आपसे बढ़कर और दूसरी क्या वस्तु हो सकती है, जिसे देकर आप उनसे उऋण होंगे? प्राणी विविध प्रकार के ऐहिक-आमुष्मिक सुख को ही परम पृरुषार्थ समझता है किन्तु जिनके आँगन में उस सुख का परमोद्गम स्थान साक्षात् परब्रह्म मूर्तिमान् होकर धूलिधूसरित हुआ खेल रहा है उनके लिये वे क्षुद्र सौख्यकण कैसे फलरूप हो सकते हैं? जिन्हें जो वस्तु अप्राप्त होती है वही उन्हें फलरूप से स्वीकृत हुआ करती है। अतः जिन्हें आप आत्मीय-रूप से अहर्निश प्राप्त हैं उन्हें सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् होकर भी आप क्या दे सकते हैं? इसलिये इनके तो आपको ऋणी ही रहना पड़ेगा। इस विषय में कुछ निश्चय न होने के कारण मेरा चित्त मोहित हो रहा है। यदि कहे कि मैं अपने को ही समर्पण कर दूँगा तो इसमें भी कोई महत्त्व की बात न होगी, क्योंकि जो पूतना दम्भ से माता के समान आचरण दिखलाती हुई आपका अनिष्ट करने के लिये स्तनों में विष लगाकर आयी थी उसे भी उसके कुल सहित आपने अपने स्वरूप को ही प्राप्त करा दिया था; फिर जिनके धन, धाम, स्वजन, प्रिय, आत्मा, प्राण और चित्त आप ही पर निछावर हैं उन व्रजवासियों को आप क्या देंगे? उनके तो आप ऋणी ही रहेंगे। अहो! जिन व्रजबालकों का उच्च स्वर से किया हुआ हरि गुणगान तीनों लोकों को पवित्र कर देता है, उनके चरणकमलों की वन्दना हम बारम्बार करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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