भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इस प्रकार भगवान ने रात्रियाँ तो बना लीं, परन्तु उनको अपना मन तो है नहीं, ‘अप्राणो ह्यमना शुभ्रः।’ इसलिये उन्होंने “मनश्चक्रे” मन भी बनाया। तात्पर्य यह है कि अभी तक तो यही समझा जाता था कि भगवान देह-देही विभाग से रहित हैं; वे केवल भक्तानुग्रह के लिये ही शरीरादिमान्-से प्रतीत होते थे। परन्तु यह लीला इस तरह नहीं होगी। यहाँ तो उन्हें व्यासक्तचित्त होना पड़ेगा। यदि अमना भगवान रमण करेंगे तो व्रजांगनाओं की कामना पूर्ण न होगी। इसी से उन्होंने मन भी बनाया। परन्तु बनाया कैसे? ‘योगमायां वीक्ष्य’- योगमाया की ओर देखकर। इसमें उन्हें कोई कठिनता नहीं हुई; उन्होंने योगमाया की ओर केवल देख दिया। उस निरीक्षण से सब बात अपने-आप बन गयी। वह योगमाया क्या है? ‘योगाय रमणाय अथवा अघटितघटनाय या माया कृपा’ अर्थात रमण अथवा अघटित घटना के लिये जो माया यानी कृपा है वही योगमाया है। यह ठीक ही है, क्योंकि अमना का मनोनिर्माण और दोषा रात्रियों को निर्दोष बनाना अघटित घटना ही तो है। ऊपर जो विवेचन किया गया है उसके अनुसार ‘शददोत्फुल्लमल्लिकाः’ इस पद की व्युत्पत्ति एक अन्य प्रकार से भी हो सकती है। यथा- ‘शरान् ददातीति शरदः वसन्तः तेन उत्फुल्लानि मल्लिकोपलक्षितानि सर्वाणि पुष्पाणि यासु ताः। अर्थात जो कामदेव को शर प्रदान करता है वह वसन्त ही शरद् है, उसने जिन रात्रियों में मल्लिका से उपलक्षित समस्त पुष्पों को विकसित कर दिया है वे रात्रियाँ ही शरदोत्फुल्लमल्लिका हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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