भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यहाँ जो ‘अपि’ शब्द आया है उसका अर्थ ‘च’, ‘और’ समझना चाहिये। अर्थात शरदोत्फुल्लमल्लिका रात्रियों को और उन त्रिविध गोपांगनाओं को देखकर भगवान ने रमण करने को मन किया। किन्तु उन्होंने मन किया कैसे? इस पर कहते हैं कि स्वप्रकाश पूर्ण परब्रह्म भगवान ने आप्तकाम होकर भी योगमाया का आश्रय लेकर मन बनाया। योगमाया का आश्रय लेने से क्या अभिप्राय है? ‘योगाय स्वेन सह तासां संश्लेषाय या माया कृपा तामुपाश्रित्य’ अर्थात-योग यानी अपने साथ संश्लेष करने के लिये जो माया-कृपा, उसका आश्रय लेकर। यहाँ ‘माया’ शब्द का अर्थ कृपा है, ‘माया कृपायां दम्भे च’। अतः कृपापरतन्त्र भगवान ने स्वप्रकाश पूर्ण परब्रह्म होकर भी केवल कृपावश मन किया। दूसरी बात यह भी हो सकती है कि- “युज्यते-सदा संश्लिष्यत इति योगा, महालक्ष्मीः परमान्तरंगशक्तिभूता श्रीवृषभानुनन्दिनी, तस्या माया कृपा योगमाया, तामुपाश्रित्य।” अर्थात-जो युक्त यानी सदा संश्लिष्ट रहती हैं वे परमान्तरंग-शक्तिभूता श्रीवृषभानुनन्दिनी ही योगा है, उनकी माया -कृपा ही योगमाया है, उसका आश्रय लेकर रमण की इच्छा की। तात्पर्य यह है कि अपनी कृपा के अधीन होकर नहीं बल्कि जो श्रीवृषभानुसुता की कृपापात्रभूता तथा उनके चरणकमल-मकरन्द का आस्वादन करने वाली व्रजांगनाएँ हैं उनकी प्रसन्नता सम्पादन करने के लिये ही भगवान ने रमण की इच्छा की, क्योंकि ऐसा करने से ही वे अपनी परमान्तरंगा आह्लादिनी-शक्ति श्रीराधिका जी को प्रसन्न कर सकते थे। जो मधुरभाव के उपासक हैं उनकी यह पद्धति है कि वे पहले अपने आचार्यों का आश्रय लेते हैं, फिर उनके द्वारा गोपांगनाओं की प्रसन्नता लाभ करते हैं, उनकी प्रसन्नता से उन्हें प्रधान-प्रधान यूथेश्वरियों का प्रसार प्राप्त होता है और तत्पश्चात श्रीहरि की चिरसंगिनी श्रीराधिका जी की कृपा होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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