भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
परन्तु एक ही वस्तु में एक ही सत्ता में अनेक विकल्पों का होना सम्भव नहीं है। क्रिया में तो विकल्प होना बहुत सम्भव है, जैसे हम घोड़े पर चढ़कर जा भी सकते हैं और नहीं भी जा सकते; परन्तु वस्तु में ऐसा भेद नहीं हो सकता। अतः एक ही ब्रह्म सगुण भी है और निर्गुण भी, यह सत्ताभेद से तो माना जा सकता है, परन्तु एक सत्ता में ऐसा होना सम्भव नहीं है; जिस प्रकार एक ही मृत्तिका उपाधिभेद से तो घट, शराब और कूँडा आदि भेदवती प्रतीत होती है, परन्तु निरुपाधिक रूप से उसमें कोई भेद नहीं है। अतः श्रुतियों का परम तात्पर्य भले ही एक ही वस्तु में हो किन्तु उनका अवान्तर तात्पर्य तो अन्य में ही हो सकता है। इन अवान्तर तात्पर्यों को लेकर ही सारे वाद-विवाद होते हैं। परन्तु इससे भी कोई हानि नहीं है, क्योंकि उन विभिन्न अर्थों का भी महातात्पर्य तो एकमात्र भगवान में ही है। अतः जो लोग अत्यन्त अश्रद्धालु हैं उनका ईश्वर खण्डन भी अच्छा ही है, क्योंकि उस अवस्था में भी वे खण्डनात्मक रूप से भगवान का ही चिन्तन करेंगे। भगवान तो ऐसे कृपालु हैं कि ‘भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ’ किसी प्रकार उनका चिन्तन किया जाय, वे कृपा ही करते हैं। इसीलिये शिशुपाल और कंसादि को भी अन्त में भगवद्धाम की ही प्राप्ति हुई बतलायी गयी है। किन्तु वेन की अधोगति हुई, क्योंकि उसका भगवान के प्रति वैर भी नहीं था। उसकी उपेक्षादृष्टि थी। इस प्रकार हम देखते हैं कि शास्त्र में सभी प्रकार के अधिकारियों के उद्धार का साधन विद्यमान है। यहाँ तक कि श्रुति में नास्तिकवाद का मूल भी मिलता है; यथा- “असदेवेदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयं तस्मादसतः सज्जायते।”[1] कहीं-कहीं ‘असत्’ शब्द का अर्थ ‘अव्यवहार्य’ भी है। जैसे-कहते हैं कि मिट्टी में घट नहीं है, क्योंकि यद्यपि उसमें कारणरूप से घट है तथापि अव्यहार्य होने के कारण उसे असत् कहा जाता है। किन्तु यहाँ तो ‘असत्’ का तात्पर्य शून्य में ही है, क्योंकि आगे- “कथमसतः सज्जायेत।”[2] ऐसा कहकर उसका खण्डन कर दिया गया है। अतः जिस प्रकार भगवान ही अनेक रूप से प्रकट होते हैं उसी प्रकार यहाँ भी अनन्य पूर्विका व्रजांगनाओं में ही लीला विशेष के विकासार्थ अन्य पूर्विकात्व की प्रतीति होती थी। भगवान तो पूर्ण ब्रह्म परमात्मा हैं। उनके साथ प्राकृत प्राणियों का संसर्ग कैसे हो सकता था? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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