भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
वेदान्त प्रक्रिया के अनुसार महत्त्वातिशय का भी आधान ब्रह्म में नहीं हो सकता, क्योंकि ब्रह्म शब्द की व्युत्पत्ति है ‘बृहत्त्वाद्ब्रह्म’- बड़ा होने के कारण वह ब्रह्म है। बृहत्, अनल्प, भूमा ये सब एक ही अर्थ के वाचक हैं। जहाँ कोई संकोचक प्रमाण होता है वहाँ तो अनल्पत्व सातिशय होता है। जैसे ‘सर्वे ब्राह्मणा भोजयितव्याः’ इस वाक्य के अनुसार समस्त ब्राह्मणों को भोजन कराना सम्भव न होने के कारण ‘सर्व’ शब्द का संकोच करके केवल समस्त निमन्त्रित ब्राह्मणों को भोजन कराना ही समझा जाता है। यहाँ कोई प्रमाण नहीं है जिससे ब्रह्म का अनल्पत्व सातिशय निश्चय किया जाय। अतः संकोचक प्रमाण का अभाव होने के कारण यहाँ वही अर्थ करना चाहिये कि जो निरतिशय बृहत् है अर्थात जिससे बड़ा और कोई नहीं है वह भूमा ब्रह्म है। जो देश, काल या वस्तु से परिच्छिन्न हो, अर्थात अन्योन्याभावादि चार प्रकार के अभावों में से किसी का प्रतियोगी हो वह अपरिच्छिन्न (निरतिशय) अनल्प नहीं हो सकता। अतः सब प्रकार के परिच्छेद से रहित सच्चिदानन्द तत्त्व ही ब्रह्म है। ऐसा अपरिच्छिन्न तत्त्व सब प्रकार के बाध का अधिष्ठान होने के कारण अबाध्य सत् है। यदि वह अबाध्य जड़ हो तो उसके भान के लिये किसी दूसरी वस्तु की अपेक्षा होगी और ऐसा होने पर द्वैत होने के कारण वस्तु परिच्छेद अनिवार्य होगा। इसके सिवा अभिज्ञों की दृष्टि में जड़ वस्तु निरतिशय बृहत हो भी नहीं सकती। अतः ब्रह्म सत् और स्वयं प्रकाश है अर्थात वह अपने से भिन्न किसी प्रकाशान्तर की अपेक्षा से रहित निरपेक्ष प्रकाशस्वरूप है। इस प्रकार अपने से भिन्न द्वैतादि उपद्रव-शून्य होने के कारण वह निरुपद्रुत परमानन्दस्वरूप है और अनन्त भी है। इससे भी ब्रह्म की निरतिशयता सिद्ध होती है। श्रीमद्भागवत में ब्रह्म, परमात्मा और भगवान-ये एक ही तत्त्व के नाम बतलाये हैं। ‘ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते।’ श्रीधर स्वामी का भी यही मत है। किन्तु कुछ लोगों का इससे मतभेद है। श्रीजीव गोस्वामी ने तत्त्व सन्दर्भ का आरम्भ इसी श्लोक से किया है। उन्होंने ब्रह्म से परमात्मा को और परमात्मा से भगवान को उत्कृष्ट माना है। उनका अभिप्राय कविवर माघ के इस श्लोक से स्फुट होता है-
अर्थात दूर से नारद जी आ रहे थे। पहले तो समझा कि कोई तेजः पुंज आ रहा है; फिर आकृति का भान होने पर मालूम हुआ कि कोई शरीरी है। उसके पश्चात अवयव-विभाग की प्रतीति होने पर जाना कि कोई पुरुष है और फिर क्रमशः निश्चय हुआ कि नारद जी हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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