भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
व्रज-भूमि
यह निर्मलता जैसे पार्थिव-प्रपंच में स्पष्ट अनुभयमान है, वैसे ही त्रिगुणात्मक प्रपंच में गुण-विमर्द-वैचित्र्य से क्वचित् प्रत्यक्षानुमान द्वारा, क्वचित् आगम तथा श्रुतार्थापत्ति द्वारा तारतम्योपेत होकर ज्ञात होती है। इसीलिये किसी स्थल में जाने से वहाँ अकस्मात चित्तप्रसाद और किसी स्थल में चित्तक्षोभ आदि चिह्नों द्वारा भी स्थल-वैचित्र्य की अनुभूति होती है। व्रजवन-निकुंजों में क्रमशः एक की अपेक्षा दूसरे में वैचित्र्य है। अत: वहाँ पूर्ण-पूर्णतर-पूर्णतमरूप से एक ही श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का प्राकट्य होता है। तीर्थों की यह विशेषता प्रत्यक्ष है कि जिस तीर्थ में जितनी अद्भुत सात्त्विकता एवं शक्ति है, वहाँ उतनी ही सरलता से प्रभु की विशेषता की अनुभूति होती है। परन्तु जैसे कामिनी का रूप कामुकों पर ही प्रभावकारी होता है और सर्व-व्याघ्रादि दर्शन से अधिक उद्वेग भीरु को ही होता है, वैसे ही सात्त्विक तथा भगवत्परायण को तीर्थगत विलक्षण शक्तियाँ प्रभावान्वित करती हैं। यद्यपि वैसे कुछ न कुछ प्रभाव तो सभी तरह से पुरुषों पर होता है, तथापि वह व्यक्त नहीं होता। परन्तु श्रुतार्थापत्ति द्वारा तीर्थों में शक्ति-वैलक्षण्य अवश्य ज्ञात है। भावुकों ने व्रजतत्त्व को हिततम वेदवेद्य प्रेमतत्त्व का स्वरूप अर्थात शरीर ही माना है। प्रेमतत्त्व के व्रजधाम-स्वरूप देह में श्रीव्रजनवयुवतिजन इन्द्रियरूपिणी हैं। मनःस्वरूप रसिकेन्द्रवर्गमूर्धन्यमणि श्रीव्रजराज-किशोर हैं तथा प्राणरूपा-प्रज्ञा के स्थान में श्रीव्रजनवयुवति-कदम्ब-मुकुटमणि कीर्तिकुमारी श्रीराधा हैं। यहाँ-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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