भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
फिर भी परकीया रति घोर नरक का मूल है, अतः शास्त्रों ने उसकी घोर निन्दा की है, परन्तु सर्वान्तरात्मा सर्वेश्वर सर्वपति भगवान के सम्बन्ध से समस्त दूषण भी भूषण ही हो जाते हैं। इसीलिये यहीं पर परकीया रति का वास्तविक सदुपयोग होता है। जैसे यहाँ महाकामिनी तन्मय होकर दुर्लभजार उपपति का चिन्तन करती है, वैसे यदि किसी जीवात्मा का मन पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान का चिन्तन करे, तो उसका अहोभाग्य है। जैसे कोई महाकामुक अतिदुर्लभ अपनी प्रेयसी कामिनी के संमिलन की लालसा में व्यग्र हो, परमानन्द रसात्मक भगवान जिन व्रजांगनाओं के चिन्तन में ऐसे व्यग्र हों, उन व्रजांगनाओं के महा-महा भाग्यों का कौन वर्णन करे? अतएव महानुभावों ने कहा है, “नेष्टा यदंगिनि रसे कविभिः परोढ़ा तद्गोकुलाम्बुजदृशां कुलमन्तरेण।” अर्थात जो कवियों ने श्रृंगार रस में परोढ़ा (परकीया) कामिनी को अनभिमत माना है, वह तो गोकुल कुलांगनाओं को छोड़कर माना है अर्थात यहाँ की नायिका और नायक दोनों ही अलौकिक हैं। ऐसे ही स्वरूप सिद्धा भी कन्या होकर, कात्यायिनी भगवती की अर्चना द्वार, श्रीकृष्ण लीला के लिये साधक भाव को प्राप्त हुई थीं। इनके अतिरिक्त श्रुतियों की अधिष्ठात्री महाशक्तियों ने, जब परमतत्त्व का अन्वेषण करते करते महा-महा तपस्या के पश्चात श्रीकृष्ण का दर्शन पाया, तब उन्होंने उनके साथ रमण (तादात्म्येन संमिलन) की इच्छा प्रकट की। श्रीकृष्ण ने कहा कि “तुम मेरी आराधना द्वारा व्रजकुमारिका बनो, तब वहाँ तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा।” इस तरह कृष्ण का वर प्राप्त करके वे भी नन्दव्रजकुमारिका हुई हैं। उनमें आगे चलकर साक्षात परब्रह्म पर्य्यवसायिनी “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” इत्यादि श्रुतियाँ अनन्यपूर्विका या स्वकीया हुई हैं, एवं कर्मकाण्ड या अन्यान्य देवता तत्त्व पर्य्यवसायिनी श्रुतियाँ परकीया हुई हैं, जैसे “सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति।” “वेदैश्च सर्वेरहमेव वेद्यः।।” इत्यादि श्रुति-स्मृति के अनुसार समस्त वेदों का महातात्पर्य्य परब्रह्म में ही हे। अन्यान्य अविचारित रमणीय या अवान्तर ही तात्पर्य्य होता है। वैसे ही यहाँ भी श्रुतिरूपा गोपांगनाओं का, अन्य सम्बन्ध केवल काल्पनिक है, मुख्य सम्बन्ध तो उनका भगवान से ही है। उनमें भी श्रुतिरूपा गोपांगना वाच्य-वाचक के अभेद रूप में ब्रह्मरूपा ही हैं, ओंकार मूलवाचक है, उसका वाच्य परब्रह्म है। समस्त वाङ्मय ओंकार का विकार है, और सारा प्रपंच ब्रह्म का कार्य्य है। अतः ओंकार का विकारभूत समस्त वाङ्मय, ब्रह्म के कार्य्यभूत सम्पूर्ण प्रपंच का वाचक है। वाच्य और वाचक का अभेद हुआ करता है, इसीलिये समस्त वाङ्मय भी वस्तुःत ब्रह्मरूप ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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