भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
पानी वगैरह कुछ नहीं लेती। इसलिये शुष्क तपस्विनी बनी है। तो तुमने जैसे अधरसुधा को प्राणाधार बनाया, वैसे उसने भी प्राणाधार बनाया। कितनी वह तपस्विनी है! उसकी ईर्ष्या क्यों? कहा ईर्ष्या नहीं करती तो भी यह अधरसुधारस इसी का नहीं है। हमारा भी तो है। ‘गोपिकानामपि’। इसमें हमारा भी हिस्सा है यदि यह बात है, तो फिर बाँटकर लेना चाहिये। पर यह हमारे भी हिस्से को बिना बाँटे मनमानी अधरसुधा का भोग कर रही है। यही दोष है। कहा यह वेणु नहीं, वेन राजा है, उसका लक्षण इसमें पूरा-पूरा मिलता है। वेन क्या कहता था- ‘न दातक्ष्यं’ इत्यादि। ‘हे प्रजावो! तुम जप-तप मत करो, केवल मेरा श्रवणादि करो, मैं ही सब कुछ हूँ।’ यह वेन भी हम सबको यही सिखाता है- कुछ मत करो, केवल मेरा ध्यान धरो। सचमुच हमारा सब काम इसके श्रवणमात्र से छूट जाता है। सब कर्म-धर्म छूट गया। आश्चर्य यही कि उस वेन ने क्या कुशल कर्म किया कि उसे यह सौभाग्य मिला? उस वेन से इसमें यह विशेषता है कि वह एक मुख से स्वसिद्धान्त का प्रचार करता था, यह सात मुख से करता है। सचमुच एक बार जिसने इस मोहन मंत्र को सुना उसका सब छूट गया। ‘शक्रशर्वपरमेष्ठिपुरोगाः कश्मल ययुरनिश्चिततत्त्वाः।’ सनकादि महामुनीन्द्रगण आश्चर्य में चकित हैं कि यह वेणु क्या कह रहा है? कहा सखि! वह तो वेन रहा, यह तो वेणु है। कहा यह णत्व उत्व की ओढ़नी ओढ़कर आया है। अगर वैसे आता तो कोई सुनता नहीं क्योंकि वह नास्तिक प्रख्यात था। तो सखि! इस वेन ने कौन सा पुण्य किया कि वह समर्थ हो गया, और थकता भी नहीं, इसलिये निरंतर अधरसुधा का पान करता है। खैर, जो कुछ करता तो करता ही है, श्यामसुन्दर के अधरसुधा का संभोग कर रहा है, ‘अहो धन्या वयम्।’ यदि किसी का पालित शिशु सम्राट हो तो उसे कितना आनन्द होता है, तो सरसी नदी यह सोचती कि जगत्वंद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम के मुखचंद्र की समधुर अधरसुधा का संभोग करता जिसके लिये व्रजांगनाएँ ललचा रही हैं, हमारे जल सेयह परिपुष्ट है। उसी के आनन्द से कमल-कमलिनी व्याज से रोमांच आये हैं। व्रजांगना कहती हैं- सखि! वेणु को अपने जल से पालन करने वाली सरिता अपने को धन्य समझती है। तो अनुमान करो कि यह हमारे प्राणाधार का अवश्य संभोग करता है। अगर उन पर विश्वास न हो तो वृक्षों को देखो; उनमें मधुधारा टपकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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