भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
क्या करते हुए प्रवेश किया? “रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन्।” यहाँ ‘वेणोः’ से पुंस्त्व सूचित किया। वेणु पुमान् है अर्थात पुमान् वेणु के छिद्रों में अधरसुधा को पूरित करते हुए भगवान पधारे। दूसरी दृष्टि यह है कि वेणुछिद्रों में अधरसुधा का सन्निवेश कर, भगवद्भोग्या अधरसुधा को व्रजांगनाओं में और देवभोग्या को खगादिकों में पहुँचाना है। इसके लिये वेणु केवल पात्र ही है। अधरसुधा का रस वेणु को नहीं मिलता इसी का उपपादन है। जब भगवान के अधरसुधा से पाषाण भी द्रवित हुए तब वेणु क्यों न सुधरी? उसमें हरापन क्यों न आया? वह त्यों का त्यों क्यों रहा? इसका कारण यही है कि वह केवल पात्रमात्र रही, उसको कुछ मिला नहीं। अन्य दृष्टि से कहें, तो वेणु बड़ी चतुर भगवान की प्रिय सखी है। वह वेणुरूप में अपने आपको छिपाकर पुमान रूप में अभिव्यक्त होकर श्यामसुन्दर के अधर पर विराजित होकर उसकी मधुर सुधा का पान करती है। वह इसलिये वेणु बनी कि कोई उसकी ईर्ष्या न करे, कोई न जाने कि यह श्यामसुन्दर का रसास्वादन करती है, नहीं तो कोई उसे चुरा लेगा। वृषभानुनन्दिनी ने तो कई बार उसको चुराया भी था। अतः वह वंशी सग्रन्थि एवं शुष्क होकर रहती है। क्योंकि वह चतुरा है। ऊँची कोटि के रसिक अपने रस को प्रकट नहीं करते। रोयेंगे तो भी भीतर ही भीतर, बाहर नहीं। इस तरह वेणु बड़े धैर्य से रसास्वादन करती हुई भी अपने को शुष्क बनाये रखती है। सोचती है कि यदि मुझमें हरे-हरे पल्लव निकल आये, तो श्यामसुन्दर हमें छोड़ देंगे। कहेंगे कि यह हमारे काम की नहीं रही। जिस रसाभिव्यक्ति में श्यामसुन्दर उसे छोड़ दें, वह रस किस काम का? माना कि यदि वेणु श्यामसुन्दर के अमृतमय मुखचन्द्र पर आसीन होकर अधरसुधा रसास्वादन से प्रफुल्लित हो गयी तब तो वह बजेगी ही नहीं। अधरपल्लव पर लिटाना, सुधा का स्वाद देना यह बस तब तक ही, जब तक वह सरस न हो। इसलिये वह अपने को सरस नहीं होने देती। जहाँ परम्परा से अधरसुधास्वादन से पाषाण द्रुत हो गये, नदियाँ स्वब्ध एवं रोमांचित हो गयीं वहाँ साक्षात आस्वादन लेनेवाली वेणु सरस क्यों न हो? इस चातुर्य का पता गोपियों को लग गया। इसीलिये व्रजांगनाएँ आगे कहती हैं- “गोप्यः किमाचरदयं कुशलं स्म वेणुः।” सखि! इस वेणु ने कौन पुण्य किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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