भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
पूर्णतम, पुरुषोत्तम भगवान अपनी ही माधुर्याधिष्ठात्री शक्ति का आस्वादन करते हैं। फूलों में स्वयं अगर घ्राणशक्ति हो तो वे जैसा आघ्राण करेंगे, वैसे ही यह रमण है। तथा च यह आया कि भगवान आत्मरति हैं। ठीक ही है, जिनका ध्यान करने वाले अमलात्मा परमहंस मुनीन्द्र अपने रमण के लिये किसी की अपेक्षा नहीं करते, उनके ध्येय, आराध्यदेव श्रीप्रभु अनात्मरति कैसे होंगे? तथा च जहाँ-जहाँ इनका प्राकट्य नहीं, वहाँ श्रीकृष्ण का रमण भी नहीं। प्राणिमात्र के लिये अपेक्षित यही है कि वह ब्रह्म संस्पर्श, ब्रह्म रस संभोग का प्रयत्न करे। यही जीवन की सफलता है। यहाँ के षडरस भोगते-भोगते कल्पकल्पान्तर बीत गये, अतः प्रत्येक उस ब्राह्मरस स्पर्श के लिये लालायित हो यही ठीक है। “जाकर मन इन सन नहिं राता। तेहि जग वंचित कीन्ह विधाता।।” जिसका मन इनके लिये उत्कंठिन न होता हो, वह प्राणी नहीं। अस्तु, यह हो तब श्रीकृष्ण सबमें रमण करें। प्रथम ब्रह्म जीव में रमण करे, फिर जीव ब्रह्म में। व्रजांगनाओं में कोई ऋषिरूपा थी, कोई अग्निरूपा, कोई साधनसिद्धा, कोई नित्यसिद्धा, कोई जनकपुर निवासिनी। उन सबों में प्रथम श्रीकृष्णचन्द्र परमानंदकंद का रमण हो, फिर उनका श्रीकृष्ण में। यहाँ पर दोनों के रमण में भेद है, वह पीछे कहेंगें। पर प्रश्न यह है कि भगवान भक्त में रमण कैसे करें? वह तो आप्तकाम, आत्माराम हैं। परन्तु श्रीवृषभानुनन्दिनी तो उनकी आत्मा ही हैं। क्या आनन्दसुधा सिन्धु से उसका माधुर्य पृथक है? इसलिये श्रीकृष्ण की आत्मा ही वृषभानुनन्दिनी है। उनका रमण उन्हीं में है, फिर व्रजांगना में कैसे रमण करें? इसका उत्तर यह है कि जहाँ श्रीकृष्णचंद्र की आत्मा का संचार है, वहीं उनका रमण-इसीलिये व्रजांगनाओं में पहले श्रीकृष्ण परमानन्दकन्द ने आत्मा का संचार किया। श्रीकृष्ण परमानन्दसिन्धु की माधुर्यसारसर्वस्वभूता अधरसुधा वृषभानुनन्दिनी ही हैं। वेणुगीत द्वारा वे ही भगवद्भोग्या सुधा के रूप में व्रजांगनाओं के श्रोत्रों द्वारा उनके अन्तःकरण, अन्तरात्मा, प्राण, इन्द्रियों एवं रोम-रोम में परिपूर्ण हो गयीं। अत: व्रजांगना भी वृषभानुनन्दिनी रूप होकर कृष्ण की आत्मा ही होंगी, अब उनमें रमण भी श्रीकृष्ण का आत्मा में ही रमण है। क्या उनमें आत्मा का मुलम्मा हुआ? नहीं, उसके केवल संसर्ग से उनमें तन्मयता हो गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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