भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
‘श्रोश्च ते लक्ष्मीश्च’ यहाँ भी श्री का अर्थ श्रीवृषभानुनन्दिनी है। वैसे तो श्री शब्द का प्रयोग लक्ष्मी में भी होता है, पर जहाँ श्री तथा लक्ष्मी का पृथक पठन है, वहाँ श्री का अर्थ लक्ष्मी क्यों किया जाय? ‘लक्ष्मी’ अर्थ में श्रयते हरिः या सा श्रीः, श्रयते सेवते (श्रिम्व सेवायाम्) ऐसे अर्थ हैं, किन्तु यहाँ श्रीयते सर्वैर्गुणैर्या सा, ऐसा कर्म में प्रत्यय। जो समस्त गुणगणों से, अद्भुत सौन्दर्य, सौरस्य, सौगन्ध्य इत्यादि से सेवित हो, वह श्री। यह सेविका श्री नहीं, सेव्या श्री है अर्थात सकल गुण-गण मूर्तिमान होकर जिसकी सेवा करें, वह श्रीवृषभानुनन्दिनी श्री हैं। जितनी भी अनन्तकोटि ब्रह्माण्डान्तर्गत सौरस्य, सौगन्ध्य, सौन्दर्य, मार्दव, माधुर्यादि गुणों की अधिष्ठात्री महालक्ष्मी महाशक्तियाँ हैं, वे मूर्तिमती होकर राधा की सेवा में उपस्थित हैं। इसीलिये गोलोक धाम में मूर्तिमती शोभादि गोपागंगनाएँ राधा जी की सेवा में उपस्थित हैं। अब वृषभानुनन्दिनी की सुन्दरता की कल्पना कौन करे? अनन्तकोटि ब्रह्माण्डान्तर्गत सौन्दर्य बिन्दु का उद्गम स्थान जो सौन्दर्यसिन्धु उसकी अधिष्ठात्री महालक्ष्मी श्रीवृषभानुनन्दिनी की सेवा में रहती हैं। भगवान श्यामसुन्दर व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द की तो माधुर्याधिष्ठात्री स्वयं वृषभानुनन्दिनी ही हैं। अनन्तकोटि ब्रह्माण्डान्तर्गत जो मार्दव है, उसकी अधिष्ठात्री देवी महालक्ष्मी के चरण इतने कोमल हैं कि कोमल से कोमल कमल की पँखुड़ी के गड़ने का डर रहता है। इतनी मृदुलता जिसके चरणों में है उस महालक्ष्मी के हस्तारविंद कितने कोमल होंगे, कुछ ठिकाना नहीं। ऐसी जो महालक्ष्मी हैं, वे अपने सुकोमल श्रीहस्तों से वृषभानुनन्दिनी के श्रीचरणों को स्पर्श करने में सकुचाती हैं, कि कोमल चरणों में कहीं आघात न लग जाय। ऐसे ही क्षमाधिष्ठात्री, दयाधिष्ठात्री, करुणाधिष्ठात्री शक्तियाँ सर्वगुणगणों सहित निरन्तर श्रीवृषभानुनन्दिनी का सेवन करती हैं। कोई भावुक तो कहते हैं कि ‘श्रीयते हरिणाऽपि या सा श्रीः।’ जैसे भक्त भगवान को भजते हैं, वैसे ही भगवान भक्त को। ठीक ही है, भगवान स्वयं कहते हैं- ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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