भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
यदि यह काहे कि आकर्षन नहीं-तो लीला कैसे? तो प्रभु एक वैष्णवी मोहिनी माया से सबों के स्वरूपों को आवृत, मोहित कर देते हैं। अतः निखिल रसामृतमूर्ति होते हुए भी वे अपने आपको भूल जाते हैं। इसी तरह श्रीवृषभानुनन्दिनी, व्रजांगना इत्यादि भी अपने को भूल जाते हैं। यदि स्वयम् तृप्त हैं, तो दूसरे की स्पृहा कैसी? किन्तु इस वैष्णवी मोहिनी माया से यशोदा माता प्रभु के मुखारविन्द में चराचर विश्व को देखती हुई भी, अपने को भूल गयीं, वैसे ही यहाँ भी सब अपने स्वरूप को भूल गये। यदि कोई कहे कि रुचि से अपने को भुलाना कैसे? तो लोग जैसे भंग पीकर अपने को अपनी रुचि से मोहित करते हैं। यह क्यों? विस्मृति के लिये। विस्मृति में भी स्वाद है, रस है, यदि वह स्वेच्छामूलक हो, अर्थात जैसे प्राकृत मानव भंगादि मादक आसवों द्वारा स्वरूपविस्मृतिपुरःसर लीला में प्रवृत्त होता है वैसे ही वैष्णवी माया से भगवान भी लीला में प्रवृत्त होते हैं। एवं यह स्पष्ट है कि इस मंगलमयी रस की लीला से, उसके मनन, निदिध्यासन से प्राणियों का परम कल्याण है। जन्म, कर्म तो सबकेे ही हैं, और प्राणियों के जन्म, कर्म बन्धनकारक भी होते हैं, मगर भगवान के जन्म-कर्म बन्धन नहीं।
श्रीभगवान और जीव के जन्म, कर्म क्या बराबर है? जीव के जन्म-कर्म सुनते-देखते कल्प-कल्पान्तर बीत गये, अब भगवान के जन्म-कर्म सुनने चाहिये। उसी के द्वारा श्रीकृष्णचन्द्र परमानंदकंद की प्राप्ति होगी। श्रीकृष्ण के जन्म-कर्म के श्रवण से प्राणियों के जन्म-कर्म छूटते हैं, प्राणियों के जन्म-कर्म श्रवण से जन्म-कर्म परम्परा बढ़ती है। अतः वह भगवान की लाला ही थी, पर वह अप्राकृत थी। स्वाभाविक आसक्ति के लिये लौकिक रूप में कही गयी है। संसार की आकांक्षा, वान्छा, आशा, तृष्णा और श्रीकृष्णचन्द्र परमानंदकंद के सम्मिलन की आकांक्षा, वान्छा, आशा, तृष्णा क्या बराबर हैं? नहीं, दोनों में आकाश-पाताल का अन्तर है। वह आशा पिशाची है, यह आशा कल्पलता है। इसलिये यह ठीक निर्विवाद है कि पूर्णतम, पुरुषोत्तम, निखिलरसामृतमूर्ति, श्रीकृष्ण परमानंदकंद ने अपने आपको सर्वरूप में व्यक्त किया। फिर भी लीला रस, आसक्ति के लिये यहाँ स्वरूपानन्द विस्मरण अपेक्षित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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