भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
रस में यह सब राग हो रहा है, वैसे तो राग में रस है, यहाँ तो उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगाररसात्मा श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द में राग आसक्ति व्यसन हो रहा है, तात्पर्य यह कि भक्त, रसस्वरूप श्रीभगवान में राग आसक्ति व्यसन प्राप्त करना चाहते हैं, अर्थात जहाँ उस तरह का राग आसक्ति व्यसन भक्त करता है, वैसे ही आगे श्रीभगवान भक्त में राग आसक्ति व्यसन करते हैं, जैसे श्रीवृषभानुनंदिनी का, व्रजांगनाओं का श्रीकृष्ण परमानन्दकन्द मनमोहन श्यामसुन्दर में राग आसक्ति व्यसन वैसे ही श्रीभगवान का श्रीवृषभानुनन्दिनी में, व्रजांगनाओं में राग आसक्ति व्यसन। पहिले भक्त का भगवान में, फिर भगवान का भक्त में, जैसे बताया वृषभानुनंदिनी के हृदय की वस्तु श्रीकृष्णचन्द्र, वैसे ही श्रीश्यामसुन्दर के हृदय की वस्तु वृषभानुनंदिनी। कहा जा चुका है कि यह लौकिकवत् प्राकृतवत् व्यक्त हो मगर है वह अलौकिक। रस रसालम्बन रसाश्रय तीन-तीन जाति के होते हैं, यहाँ एक ही है। परमरसामृत सिन्धु के ये तीन विकास हैं। श्रीकृष्णचन्द्र और वृषभानुनन्दिनी परस्पर के हृदय हैं, जैसे श्रीकृष्णचन्द्र के स्वरूप से श्रीवृषभानुनन्दिनी का हृदयगत उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगाररस मूर्त हुआ, वैसे श्रीवृषभानुनन्दिनी के स्वरूप से श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का हृदयगत उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगाररस मूर्त हुआ, अतः दोनों उभयात्मक हैं, इस दृष्टि से दोनों ओर इस स्वरूप में रसाभिव्यक्ति हुई, जैसे वीर रस में वीर रस का, करुण रस में करुण रस का संचार वैसे उभयविध श्रृंगाररसात्मा में रसाभिव्यक्ति, यही कहा ‘बर्हापीडं नटवरवपुः।’ अब ‘बिभ्रत्’ बर्हापीड से अलग, ‘कर्णयोः कर्णिकारं बिभ्रत्’ कानों में कनेल के फूलों को धारण किये। ‘कर्णयोः’ द्विवचन, ‘कर्णिकारं’ एकवचन अतः उसमें भी द्वित्व की कल्पना कोई करते हैं, अथवा कभी वाम में, कभी दक्षिण में। एतावता रसवैदग्धी विशेष कहा। इसमें भावुक कहते हैं, भगवान के दो कर्ण रस के उद्भावक हैं, कानों में रसानुभावक रसोद्बोधक पुष्प धारण करने से रस को उद्वेलित किया। किंवा द्विविध श्रृंगार के अनुभावक दोनों कर्ण। संप्रयोग काल में हास-रास-विलास मिश्रित वचनों से उस रस की पुष्टि विप्रयोग काल में भी वेणुदूत द्वारा जब भक्तों को भगवान आहूत करते हैं तब श्रोत्रों का ही काम है, अथवा एकान्त में भक्त जब भगवान का चिन्तन करते हैं ‘तच्चिन्तनं तत्कथनं’ उससे भावनापरिपाक की महिमा से इन श्रोत्रों द्वारा ही दूरस्थ व्रजांगनाओं के आर्तिविलाप भगवान को अनुभूत होते हैं, एवंच इसमें मुख्य जो कान उनको भूषित किया अर्थात् कभी संप्रयोग श्रृंगार का पोषण, कभी विप्रयोग श्रृंगार का पोषण भगवान ने किया और लोग कहते हैं कर्णिकार याने कनेल नहीं, पीतवर्ण का उत्पलाकार पुष्प, उसका स्वभाव है सूर्याभिमुख रहना, जिधर सूर्य जाय उधर ही वह जाय, कर्णिकार पुष्प के इस स्वभाव को जानकर उसको आपने धारण किया। भगवान सूचित करते हैं कि हमारे प्रेमी जिधर मुँह करते हैं वैसे मैं भी उनहें अभिमुख होता हूँ, एतावता जिधर भक्तगण उधर ही उभयविध श्रृंगाररस उन्मुख, इसीलिये उनको धारण कर यही दिखलाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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