भक्ति सुधा -करपात्री महाराज पृ. 571

भक्ति सुधा -करपात्री महाराज

वेणुगीत

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रस में यह सब राग हो रहा है, वैसे तो राग में रस है, यहाँ तो उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगाररसात्मा श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द में राग आसक्ति व्यसन हो रहा है, तात्पर्य यह कि भक्त, रसस्वरूप श्रीभगवान में राग आसक्ति व्यसन प्राप्त करना चाहते हैं, अर्थात जहाँ उस तरह का राग आसक्ति व्यसन भक्त करता है, वैसे ही आगे श्रीभगवान भक्त में राग आसक्ति व्यसन करते हैं, जैसे श्रीवृषभानुनंदिनी का, व्रजांगनाओं का श्रीकृष्ण परमानन्दकन्द मनमोहन श्यामसुन्दर में राग आसक्ति व्यसन वैसे ही श्रीभगवान का श्रीवृषभानुनन्दिनी में, व्रजांगनाओं में राग आसक्ति व्यसन। पहिले भक्त का भगवान में, फिर भगवान का भक्त में, जैसे बताया वृषभानुनंदिनी के हृदय की वस्तु श्रीकृष्णचन्द्र, वैसे ही श्रीश्यामसुन्दर के हृदय की वस्तु वृषभानुनंदिनी। कहा जा चुका है कि यह लौकिकवत् प्राकृतवत् व्यक्त हो मगर है वह अलौकिक।

रस रसालम्बन रसाश्रय तीन-तीन जाति के होते हैं, यहाँ एक ही है। परमरसामृत सिन्धु के ये तीन विकास हैं। श्रीकृष्णचन्द्र और वृषभानुनन्दिनी परस्पर के हृदय हैं, जैसे श्रीकृष्णचन्द्र के स्वरूप से श्रीवृषभानुनन्दिनी का हृदयगत उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगाररस मूर्त हुआ, वैसे श्रीवृषभानुनन्दिनी के स्वरूप से श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का हृदयगत उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगाररस मूर्त हुआ, अतः दोनों उभयात्मक हैं, इस दृष्टि से दोनों ओर इस स्वरूप में रसाभिव्यक्ति हुई, जैसे वीर रस में वीर रस का, करुण रस में करुण रस का संचार वैसे उभयविध श्रृंगाररसात्मा में रसाभिव्यक्ति, यही कहा ‘बर्हापीडं नटवरवपुः।’

अब ‘बिभ्रत्’ बर्हापीड से अलग, ‘कर्णयोः कर्णिकारं बिभ्रत्’ कानों में कनेल के फूलों को धारण किये। ‘कर्णयोः’ द्विवचन, ‘कर्णिकारं’ एकवचन अतः उसमें भी द्वित्व की कल्पना कोई करते हैं, अथवा कभी वाम में, कभी दक्षिण में। एतावता रसवैदग्धी विशेष कहा। इसमें भावुक कहते हैं, भगवान के दो कर्ण रस के उद्भावक हैं, कानों में रसानुभावक रसोद्‌बोधक पुष्प धारण करने से रस को उद्वेलित किया।

किंवा द्विविध श्रृंगार के अनुभावक दोनों कर्ण। संप्रयोग काल में हास-रास-विलास मिश्रित वचनों से उस रस की पुष्टि विप्रयोग काल में भी वेणुदूत द्वारा जब भक्तों को भगवान आहूत करते हैं तब श्रोत्रों का ही काम है, अथवा एकान्त में भक्त जब भगवान का चिन्तन करते हैं ‘तच्चिन्तनं तत्कथनं’ उससे भावनापरिपाक की महिमा से इन श्रोत्रों द्वारा ही दूरस्थ व्रजांगनाओं के आर्तिविलाप भगवान को अनुभूत होते हैं, एवंच इसमें मुख्य जो कान उनको भूषित किया अर्थात् कभी संप्रयोग श्रृंगार का पोषण, कभी विप्रयोग श्रृंगार का पोषण भगवान ने किया और लोग कहते हैं कर्णिकार याने कनेल नहीं, पीतवर्ण का उत्पलाकार पुष्प, उसका स्वभाव है सूर्याभिमुख रहना, जिधर सूर्य जाय उधर ही वह जाय, कर्णिकार पुष्प के इस स्वभाव को जानकर उसको आपने धारण किया। भगवान सूचित करते हैं कि हमारे प्रेमी जिधर मुँह करते हैं वैसे मैं भी उनहें अभिमुख होता हूँ, एतावता जिधर भक्तगण उधर ही उभयविध श्रृंगाररस उन्मुख, इसीलिये उनको धारण कर यही दिखलाया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भगवत्प्राप्ति 1
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3. इष्टदेव की उपासना 8
4. मानसी-आराधना 20
5. सगुणोपासना में सरलता 24
6. संकल्पबल 28
7. श्री शिवतत्व 48
8. शिव से शिक्षा 60
9. शिवलिंगोपासना-रहस्य 63
10. श्री विष्णु-तत्त्व 88
11. गायत्री-तत्त्व 97
12. श्री भगवती-तत्त्व 102
13. बुद्धावतार का प्रयोजन 178
14. गजेन्द्र-मुक्ति 182
15. शक्ति का स्वरूप 188
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20. निराकार से साकार 255
21. भगवदवतार का प्रयोजन 275
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23. ज्ञान और भक्ति 287
24. भक्तिरसामृतास्वादन 327
25. अव्यभिचार भक्तियोग 352
26. सबसे सगे भगवान 360
27. चतुर्विधा भजन्ते 363
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33. प्रभुकृपा 396
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35. करुणालहरी 408
36. श्रीरामजन्म-रहस्य 411
37. श्री रामभद्र का ध्यान 415
38. श्रीकृष्ण-जन्म 422
39. भगवान का मंगलमय स्वरूप 428
40. विभीषण-शरणागति 450
41. श्रीकृष्ण बालक्रीड़ा 469
42. साक्षान्मन्मथमन्मथः 486
43. श्रीवृन्दावन में वर्षा और शरत 507
44. वेणुरव 512
45. किरातिनियों का स्मररोग 517
46. वेणुगीत 525
47. चीरहरण 691
48. वेदान्त-रससार 730
49. निर्गुण या सगुण? 781
50. व्रज-भूमि 797
51. सर्वसिद्धान्त-समन्वय 808
52. क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा? 839
53. श्रीरासलीलारहस्य 854
54. श्री रासपञ्चाध्यायी 1142

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