भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
कहा जा चुका है कि भगवान श्रीकृष्ण सम्प्रयोगात्मक-विप्रयोगात्मक उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगार रसात्मा है। श्रृंगार रस के दो भेद हैं- (1) सम्प्रयोग (संयोग) रूप और (2) विप्रयोग (वियोग) रूप। श्रीकृष्ण की मूर्ति प्राकृत पुरुषों के समान अस्थि, चर्म, मांसमय नहीं है, अपितु उभयविध श्रृंगाररसमय है और वे उभय रस भी उद्बुद्ध हैं, उद्वेलित हैं, पूर्णरूपेण अभिव्यक्त हैं। वैसे तो जिस समय संयोगात्मक श्रृंगार अनुभूयमान होता है, उस समय वियोगात्मक श्रृंगार का अनुभव नहीं होता और वैसे ही विप्रयोगात्मक श्रृंगाररसानुभव काल में सम्प्रयोगात्मक श्रृंगाररस का अनुभव नहीं होता, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण मे यही विशेषता है कि यहाँ उभयविध श्रृंगार रस का एक कालावच्छेदेन पूर्ण प्राकट्य है और दोनों का अनुभव भी एक ही काल में हो रहा है। वनदेवियों को सम्प्रयोगात्मक श्रीकृष्ण और व्रजदेवियों को विप्रयोगात्मक श्रीकृष्ण अभिव्यक्त हैं। श्रीकृष्ण का दिव्य स्वरूप वन में है, उससे वनदेवियों-आधिदैवि की शतियों का रमण सम्पन्न है। यद्यपि गोपांगनाएँ उस समय व्रज में हैं और गोपालों के साथ श्रीकृष्ण उनसे दूर हैं, तथापि उन्हीं के यह उद्बुद्ध सम्प्रयोग श्रृगाररसात्मा श्रीकृष्ण अनुभूयमान हैं। सर्वविध क्रिया शक्ति का संचार गोपालों में एवं ज्ञान शक्ति का संचार बलभद्र में है। यह सब स्थिति व्रजदेवियों को पूर्णतया ज्ञात है। यह आसक्ति की महिमा है, आसक्ति के प्राखर्य से दूरस्थ श्रीकृष्ण की सब लीलाएँ व्रजस्थ श्रीगोपांगनाओं को प्रत्यक्ष अनुभूयमान हो रही हैं। विद्या जैसे पंचपर्वा है, वैसे अविद्या भी पंचपर्वा है। अविद्या में अन्तिम आसक्ति और विद्या में अन्तिम भक्ति है। इन दोनों का स्वरूप प्रायः एक ही है। गोपांगनाओं की श्रीकृष्ण विषयिणी आसक्ति अत्यन्त उत्कट थी, उन्होंने समस्त सांसारिक सुख एवं तत्सामग्रियों को तुच्छ समझ लिया था, श्यामसुन्दर व्रजेन्द्रनन्दन मनमोहन श्रीकृष्ण ही उनके ज्ञेय, ध्येय, परमाराध्यसर्वस्व थे। दूर रहने पर श्रीव्रजांगनाओं को उनके समस्त रहन-सहन, गति, विलासादि का साक्षात अनुभव होता है। इसलिये गोपांनगाएँ महायोगीन्द्र की गति पर अवस्थित थीं। उन्हें आसक्तिवशात् विप्रयोग काल में ही भगवान का मानस सम्मिलन प्राप्त होने से संप्रयोगात्मक श्रृंगार का अनुभव हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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