भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
भावविहीन अनन्त पूजा सामग्रियों से उन्हें प्रसन्न नहीं किया जा सकता। भावयुक्त प्रेमसहित अर्पण की हुई साधारण से साधारण वस्तु से, एक तुलसीदल और चुल्लू जल चढ़ा देने से, वे भक्तवत्सल भक्तों के हाथ बिक जाते हैं-
यहाँ तो श्रीमद्वृन्दारण्यधाम के तरु, लता, गुल्म, तृणादि सभी योगीन्द्र मुनीन्द्रगण भगवान के परमभक्त होने से भगवदीयों में मुख्य हैं- “प्रायो अमी मुनिगणा भवदीयमुख्याः” अतः भगवान उनकी की हुई सर्पया को अवश्य स्वीकार करते हैं। जब कोई राजा गुप्तवेष में प्रयाण करता है, तब उसके नौकर-चाकर भी गुप्तवर्ष में उसका अनुसरण करते हैं, वैसे ही यहाँ अनन्त ब्रह्माण्डनायक, अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अव्यय, अचिन्त्य, अनन्त, अप्रमेय, नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव, निर्गुण, निराकार, कूटस्थ, एकरस, सच्चिदानन्दघन, परब्रह्म ही जब अपने उस स्वरूप को छिपाकर अचिन्त्यानन्द अद्भुत सौगन्ध्य, सौरस्य, सौन्दर्य, माधुर्य, लावण्यादि सम्पन्न, परमानन्द सुधा सागर सारसर्वस्व होकर श्रीमद्व्रजेन्द्रगेहिनी श्रीमन्नन्दरानी के परम मंगलमय अंक में अवतीर्ण हुए, तब उनके परमान्तरंग भक्तगण भी श्रीमद्वृन्दारण्यधाम में तरु, लता, तृण, सरित आदि रूप में अप्रादुर्भूत हुए हैं। अतः वे सब भगवदीय हैं, प्रभु ने उनकी अर्पण की हुई साधारण पूज्य सामग्री को बड़े प्रेम से स्वीकार किया। पृथु ने भगवान से कहा था कि ‘भगवन! आपके मंगलमय जिस चरणारविन्द की सेवा मैं करता हूँ, लक्ष्मी भी उसी का समाश्रयण करती हैं। ऐसी स्थिति में लक्ष्मी के साथ कहीं हमारा झगड़ा न हो जाय? ऐसा होने पर नाथ! आप किसका पक्ष लेंगे? मुझे विश्वास है कि आप तो आप्तकाम, पूर्णकाम, आत्माराम, निष्काम हैं, इसलिये, लक्ष्मी का पक्ष न लेकर मेरा ही साथ देंगे’-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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