भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री शिवतत्त्व
कृष्ण के अनन्य प्रेमी भक्तगण तम को बहुत ऊँचा किंवा सबसे उत्कृष्ट मानते हैं। प्रेममयी आसक्ति मोह, मूर्च्छा सात्त्विक विवेक, प्रकाश से कहीं अधिक महत्त्व की होती है। वास्तव में किसी भी कार्य में अवष्टम्भ (रुकावट) प्रकाश और हलचल की अपेक्षा होती है। तीनों में से एक के बिना भी कार्य नहीं होता। प्राकृत या अप्राकृत दिव्य से दिव्य कार्यों में भी अवष्टम्भ की अपेक्षा होती है, वही दिव्य अवष्टम्भ तम है, इसी तामस एवं तामस-तामस भावना का अत्यन्त महत्त्व माना जाता है। ‘श्रीभागवत’ का तामस फल प्रकरण सर्वापेक्षया अपना अधिक महत्त्व रखता है। वैसे भी विश्राम के लिये तामस सुषुप्ति की ऐसी महिमा है कि इन्द्रादि दिव्य भोग-सामग्री-सम्पन्न होकर भी उसे छोड़कर सुषुप्ति चाहते हैं। चिन्तन, मनन सात्त्विक होने पर भी सुषुप्ति का प्रतिबन्धक होने से उद्वेजन समझा जाता है। जब जागरादि अवस्था में द्वैत-दर्शन से जीव उद्विग्न हो उठता है तब उसे विश्राम के लिये सुषुप्ति का आश्रयण अनिवार्य हो जाता है। वैसे ही जब सृष्टिकाल के उपद्रवों से जीव व्याकुल हो जाता है तब उसकी दीर्घ सुषुप्ति में विश्राम के लिये भगवान सर्वसंहार करके प्रलयावस्था व्यक्त करते हैं। यह संहार भी भगवान की कृपा ही है, जैसे दुश्चिकित्स्य व्रण से व्याकुल को देखकर चिकित्सक करुणा से ही व्रण-छेदन के लिए तीक्ष्णशस्त्र को ग्रहण करता है, वैसे ही दुर्निवार्य पाप-ताप के बढ़ जाने पर करुणा से ही भगवान विश्व का संहार करते हैं-
‘‘भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।’’ अर्थात यह समस्त भूतग्राम अनन्त काल से उत्पन्न हो-होकर पुन-पुनः प्रलयावस्था को प्राप्त होता है। कारण से ही सबको उत्पत्ति और उसी में पालन और पुनः उसी में सबका संहार होता है। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज