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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
साक्षान्मन्मथमन्मथः
यद्यपि वस्तु वही है, तथापि अचिन्त्य दिव्यलीला शक्ति के अद्भुत प्रभाव से, ज्ञानियों का भी मन प्रभु के इस मधुर स्वरूप में बलात् आकर्षित हो जाता है। जैसे फल, वृक्ष, अंकुर, बीज यद्यपि भूमि के ही स्वरूप विशेष हैं, तथापि फल में भूमि, बीज, अंकुर, वृक्ष इन सभी की अपेक्षा विलक्षण सौन्दर्य-माधुर्य-सौगन्ध्य-सौरस्य होता है। एवं गुलाब के बीज, या नाल में, जैसे शाखा, उपशाखा, कण्टक, पत्र आदि के उत्पादन करने की शक्ति है, वैसे ही पुष्प के उत्पादन करने की शक्ति है, परन्तु जैसे कण्टकादि उत्पादिनी शक्ति की अपेक्षा, सौन्दर्य-माधुर्य-सौगन्ध्य-सम्पन्न पुष्प उत्पादन करने की शक्ति विलक्षण होती है, उसी तरह भगवान की महाशक्ति में जैसे प्रपंचोत्पादिनी शक्ति है, वैसे ही उससे परम विलक्षण परात्पर पूर्णतम भगवान की स्वरूपभूता, मधुर मनोहर मंगलमयी मूर्ति के प्रादुर्भाव करने वाली शक्ति भी है। उसी अचिन्त्य दिव्य लीलाशक्ति के योग से, निराकार भगवान साकार उसी तरह होते हैं, जैसे शैत्य के योग से निर्मल जल बर्फ रूप, अथवा संघर्ष विशेष से अव्यक्त अग्नि या विद्युत् दाहक अीर प्रकाश रूप में व्यक्त होता है। निराकार ब्रह्म की अपेक्षा भी भगवान की मधुर मूर्ति में वैसे ही चमत्कार भासित होता है, जैसे इक्षु (ईष), दण्ड और चन्दन वृक्ष ही मधुर और सुगन्धित होते हैं, यदि कदाचित इक्षु में सुमधुर फल और चन्दन वृक्ष में अति सुन्दर और सुगन्धित पुष्प प्रकट हो, तब उनके मधुरता और सौगन्ध की जितनी बड़ाई की जाय, उतनी ही कम है। इसी तरह घन ब्रह्म ही अद्भुत रसमय है, फिर उसके फलरूप मधुर मंगल स्वरूप में कितना चमत्कार हो सकता है, यह सहृदय ही जान सकते हैं। इक्षुरस सार शर्करा सिता आदि का सार जैसे कन्द होता है, वैसे ही औपनिषद् परब्रह्म रससार भगवान का मधुर मनोहर सगुण स्वरूप है। तभी किसी ने श्रीकृष्ण को देखकर कल्पना किया था कि क्या यह श्रीव्रजांगनाओं का प्रेमरस सारसमूह है, अथवा सात्वतवृन्द का मूर्तिमान सौभाग्य है, किंवा श्रुतियों का गुप्तवित्त ब्रह्म ही श्यामल महोमयी मूत्ति को धारण करके प्रकट हुआ है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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