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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
साक्षान्मन्मथमन्मथः
इतर प्रवाह स्वसंसृष्ट वस्तु को गन्तव्य स्थान में ले जाता है, परन्तु वेणुगीत-पीयूष प्रवाह तो स्वसंसृष्ट पदार्थों को अपने उद्गम स्थान श्रीकृष्ण के सन्निधान में पहुँचाता है, अथवा श्रीकृष्णचन्द्र के मुख पंकज से निर्गत वेणुपीयूष व्रजांगनाओं के अनावृत कर्णकुहर में प्रविष्ट होकर, उनके हृदय में विद्यमान धैर्य-वैराग्य-विवेक-लज्जादि रत्नों से पूरित मंजूषा को हर ले गया, इसलिये काम अत्यन्त स्वच्छ हो गया, और वेणुगीत पीयूष से आप्यायित होकर अत्यन्त प्रगल्भ हो गया। इधर वसन्त ने भी सोचा कि मित्र को अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक विश्वपति भगवान से संग्राम है, मुझे भी अपने मित्र की सहायता करनी चाहिये। मेरे मित्र मनोज पुष्पधन्वा हैं, पुष्प ही इनके अस्त्र-शस्त्र हैं। विरहीजनों के हृदय विदारण करने के कारण ही मानो रक्त रंजित लाल किंशुक बरछी का काम करता है। कमल कुन्द कुड्मल केतकी आदि ही भाला का कार्य करते हैं। ऐसे ही अन्यान्य पुष्प भी अस्त्र-शस्त्र का काम करते हैं। यह समझकर ही वसन्त ने विविध प्रकार के कमल, कमलिनी, कुमुद, कुमुदिनी, केतकी, चम्पक, मालती आदि अनेक प्रकार के पुष्पों को विकसित किया। इस भाँति मित्र की सहायता से सम्पन्न, हृष्ट-पुष्ट हो, तथा शस्त्र से सुसज्जित होकर, व्रजांगनाओं के श्रीअंगों के ही दिव्य कांचनमय कामगामी दुर्ग में अधिष्ठित हुआ, और श्रीमद्वृन्दारण्य धाम में श्रीकृष्णचन्द्र से संग्राम करने के लिये गया। भगवान उस दिव्य धाम में, आयी हुई व्रजांगनाओं के मध्य में, निर्विकार भाव से धर्म-तत्त्व का उपदेश करने लगे। तब कन्दर्प ने कहा कि इन व्रजसुन्दरियों के संग में अंग-संग एवं विविध प्रकार के रास विलासों में, यदि आपका मन क्षुब्ध और मोहित न हो, तभी आप विजयी हो सकते हैं। श्रीकृष्ण जी ने ‘तथास्तु’ कहकर वैसा ही किया। श्रीव्रजांगनाओं के श्रीअंगरूप काम दुर्ग पर आक्रमण करके ब्रह्मादि-जय-संरूढ़-दर्प-कन्दर्प के दर्प का दलन कर दिया। इतना ही नहीं, किन्तु अपने स्वरूपभूत ब्राह्मसंस्पर्श से व्रजांगनाओं को आत्मसात करके उन्हें सर्वथा निर्विकार कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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