भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
विभीषण-शरणागति
वह मनोरथ मनोराज्य नहीं। सांसारिक अभीष्टों के लिये जो संकल्प-विकल्प होता है, उसी को ‘मनोराज्य’ और भगवान के प्रति जो संकल्प विकल्प होता है, उसे ‘मनोरथ’ कहते हैं। भगवद्दर्शन के लिये, प्रभु के मंगलमय श्रीचरणारविन्दमकरन्दरससमास्वादन के लिये जो संकल्प-विकल्प होते हैं, वे बड़े पुण्यों के फल हैं और उनसे बड़ा पुण्य होता है। भारतीय शास्त्रों एवं वर्तमान काल के पाश्चात्य वैज्ञानिकों के भी मत से संकल्प में एक अद्भुत शक्ति होती है। उसके द्वारा बड़े से बड़े अनर्थों को मिटाकर बड़े से बड़ा अभीष्ट सिद्ध किया जा सकता है। भगवान के संकल्प से ही अनन्त ब्रह्माण्ड की रचना होती है, अतः भगवान के ही अंशभूत जीवों के भी संकल्प में विचित्र शक्तियाँ हैं। जो दाहकत्व शक्ति अग्नि में है, वही उसके अंशभूत विस्फुलिंग में भी होती है। अतः संकल्पों का प्रभाव अत्यन्त स्पष्ट है। फिर भी दुःसंकल्पों एवं दुराचारों से संकल्प की दिव्य शक्तियाँ तिरोहित हो जाती है। सत्संकल्प, सदाचार से दिव्य शक्तियों का प्रादुर्भात होता है। संकल्प बल से यदि हम चाहें तो घट को पट एवं पट को घट बना सकते हैं। आवश्यकता है सत्संकल्प की। निराशारूपी पिशाचिनी को दूर कर संकल्प बल से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। सत्संकल्प के द्वारा साम्राज्य, स्वाराज्य, वैराज्यादि सुख-सामग्री एवं स्वर्ग-अपवर्ग सब कुछ मिल सकता है। परन्तु संकल्प सिद्धि में एक बड़ा भारी विघ्न है- निराशा अथवा असम्भावना। एक बुड्ढे पुरुष को, जिसने कि अपना सारा जीवन अत्याचार, अनाचार, दुराचार, व्यभिचारादि में ही बिताया है, यह विश्वास नहीं होता कि हमें भी भगवान मिल सकते हैं। पर बात ऐसी नहीं है। किसी को भी निराश होने का कारण नहीं। हमारे शास्त्रों ने सबके लिये आश्वासन दे रखा है। लोगों को प्रायः इसी प्रकार की असम्भावना हुआ करती है कि ‘मुझ दीन, हीन, मलिन के पास भगवान कैसे आयेंगे, कैसे कृपा करेंगे, मैं बड़ा पापी हूँ, मुझे कैसे शरण में रख सकते हैं।’ पर यह बात भी नहीं। चिद्रूप जीवात्मा के साथ परमात्मा का अभेद सम्बन्ध रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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