भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निर्बल का बल
लोककल्याणार्थ या आत्मकल्याणार्थ कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण होने पर सहस्रों दोषों के संचार की सम्भावना होती है, इसलिये उन सबसे बचकर अव्याहत स्वरूपनिष्ठा बनाये रखने के लिये निरन्तर श्रीभगवान की स्मृति परमावश्यक है। तीसरे हैं मुमुक्षु लोग, ये दो श्रेणी के हैं, एक तो मोक्ष की आकांक्षा से श्रीहरि के चरणपंकज में समर्पण-बुद्धि से स्वधर्मानुष्ठान करने वाले एवं दूसरे शुद्धान्तःकरण हो जाने पर तीव्र विविदिषा से श्रवण, मनन, निदिध्यासन करने वाले। इन दोनों ही श्रेणी के पुरुषों को निरन्तर भगवत्स्मृति परमावश्यक है। नैष्कर्म्य-तत्त्वज्ञान भी बिना श्रीहरि-प्रेम के शोभित नहीं होता, फिर कर्म चाहे निष्काम ही क्यों न हो, भगवच्चरणपंकज में बिना समर्पण किये वह शोभित नहीं होता-“नैष्कर्म्यमप्यच्युतभाववर्जितं न शोभते ज्ञानमलं निरंजनम्”, “राम-प्रेम बिनु सोह न ज्ञाना, कर्णयार बिनु जिमि जलयाना।“ “सो सब कर्म धर्म जरि जाऊ, जहँ न रामपदपंकज भाऊ।।” जो कर्म भगवत्समर्पण के लिये अनुष्ठित होंगे, उन कर्मों की शुद्धि पर ध्यान रहेगा, बुद्धिमान् भगवान को अशुद्ध कर्मों का समर्पण न करेंगे। अतः यदि “यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्”, “कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा” इत्यादि भगवान और भगवदीयों के कथनानुसार सभी कर्मों को भगवान में समर्पण करने का नियम बनाया जायगा, तो लौकिक-वैदिक सभी कर्मों में शुद्धि रहेगी और हर एक कर्मों को करते समय भगवान का स्मरण रखने से अन्तरात्मा को त्रिताप से तप्त न होना पड़ेगा। भगवद्भक्ति, भगवत्स्मृति की महिमा से शीघ्र ही भगवान का साक्षात्कार भी हो सकेगा- “भक्त्या मामभिजानाति यावान् यश्चास्मि तत्त्वतः।” भगवत्प्रेम से निर्मल एवं एकाग्र मन पर सहज ही में परमात्मस्वरूप की अभिव्यक्ति हो जाती है। प्रापंचिक व्यवहार में आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक अनेक तापों से तप्त होना पड़ता है। परन्तु, जिनके हृदय में भगवान को पदनखमणिचन्द्रिका की आभा रहती है, उन्हें वे ताप उसी तरह नहीं तपा सकते, जैसे शारदी चान्द्रमसी ज्योत्स्ना के विकसित होने पर सूर्य-ताप नहीं तपा सकता। जैसे साँप के विष से परिश्रान्त होकर नकुल विश्रान्ति के लिये अरण्य में जाकर विषघ्नी दिव्य महौषधियों का सेवन करता है, वैसे ही संसार-विष से व्याकुल होने पर संसारियों को भी सत्संग में जाकर भगवत्स्मृति का सेवन करना चाहिये। कहा जाता है कि भगवान का स्मरण-भजन और लौकिक कर्म दोनों साथ कैसे बन सकते हैं। परन्तु भगवान तो और कार्यों की कौन कहे, सबसे विषम कर्म जो युद्ध है, उसको करते हुए भी भगवत्स्मृति को आवश्यक बतलाते हैं। कृषि, व्यापार आदि सभी कर्मों से युद्ध कठिन है, उसमें अस्त्र-शस्त्र की वर्षा होती है, उससे हर समय अपने मर्मों को बचाना, परच्छिनद्रान्वेषण करना, अस्त्र-शस्त्र चलाना, शस्त्र-अस्त्रों के लगने पर व्यथाओं को भी सहन करना पड़ता है। परन्तु, भगवान के मत से उस समय भी परमात्मस्मरण रखना परमावश्यक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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