भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
प्रभुकृपा
ऐसी स्थिति में जिसके यहाँ आप हैं, वहाँ मेरा रहना अनायास ही सिद्ध हो जाता है-- “मत्प्राप्तयेऽजेश सुरा सुरादयस्तप्यन्त उग्रस्ततप ऐन्द्रियेधियः। इस तरह अनेकों प्रयोजनों की सिद्धि अभीष्ट हो, तो भी हरि का आश्रयण आवश्यक है। वस्तुतस्तु भगवान प्राणिमात्र के अन्तरात्मा हैं, अत: निरतिशय एवं निरुपाधिक प्रेम के आस्पद हैं। जैसे झषों (मछली आदि) को जल अभीष्ट होता है, वैसे ही प्राणीमात्र को निरुपाधिक प्रेमास्पद-रूप से भगवान इष्ट हैं-“हरिहिं साक्षाद्भगवान् शरीरिणामात्मा झषाणामिव तोयमीप्सितम्।” सारांश यही है कि श्रीहरिकृपा से ही प्राणियों में शुभ भावनाओं की दृढ़ता होती है, शुभ भावनाओं के दृढ़ होने पर ही स्थिर विवेक, विज्ञान, प्राणिमात्र के प्रति भगवद्भाव जागृत होता है। यह भगवद्भाव उसी को प्राप्त होता है, जो भगवान की शरण होता है। उनकी प्राप्ति में कोई शोल, तोष, बुद्धि आदि हेतु नहीं। भगवान के तोष का हेतु उच्चकुल जन्म, सौभाग्य, मनोहर, वाक्, दिव्य बुद्धि, सुन्दर आकृति आदि नहीं, क्योंकि इन सब गुणों से रहित भी बन्दरों को भगवान ने अपना सखा बनाया। “न जन्म नूनं महतो न सौभगं न वाङ् न बुद्धिर्नाकृतिस्तोषहेतुः। श्रीहनुमान जी कहते हैं कि जब सर्वगुण विहीन बन्दर-जिसके नाम से रोटी मिलने में भी बाधा उपस्थित हो सकती है- उस सर्वविधहीन को भी सजल नवन होकर गुणग्राम सुनने से प्रभु ने अपना लिया, तब फिर औरों की तो बात ही क्या है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज