भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवत्कथामृत
ज्ञान में भी “श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः” आदि वचनों द्वारा श्रवण की ही प्रधानता वर्णित है। “सर्वे वेदाः यत्पदमामनन्ति” (सब वेद सर्वाश्रय भगवान का ही प्रतिपादन करते हैं) “वेदे रामायणे चैव पुराणे भारते तथा। आदावन्ते च मध्ये च हरिः सर्वत्र गीयते।।” (वेद, रामायण, पुराण और महाभारत आदि समस्त शास्त्रों के आदि, मध्य और अन्त में सर्वत्र एकमात्र पापतापहारी भगवान हरि के ही गुण, लीला आदि का गान है) इत्यादि वचनों से यही विदित होता है कि सभी शास्त्रों के एकमात्र प्रतिपा़द्य भगवान ही हैं। प्राणीमात्र के लिये सर्वविध कल्याणकारक होने से भगवच्चरित्र-श्रवण में सभी का अधिकार है। भगवच्चरित्र का श्रवण एवं गान मुक्त मुमुक्षु तथा संसारी सभी का कर्तव्य है। निवृत्तेच्छ, निरीह मुक्तों के परप्रेमास्पद स्वात्मा होने से प्रभु भजनीय होते हैं, इसीलिये भजन-भक्ति के लिये मुक्त पुरुषों का भी शरीरधारण उपनिषद् ने बतलाया है, “मुक्ता अपि लीलया विग्रहं कृत्वा भजन्ते।” भवसागर को पार होने में एकमात्र साधन होने से मुमुक्षुओं के भी वे परमाश्रयणीय हैं और श्रोत्र, मन के आकर्षण होने से संसारियों के भी श्रोतव्य हैं। ऐसे सर्वश्रेयस्कर प्रभु के चरित्र, कथा का जो श्रवण नहीं करते, वे या तो आत्मघाती हैं या निरे जड़ काष्ठ हैं- श्रवण, संकीर्तन से श्रोता द्वारा श्रोता के मानसपंकज में प्रविष्ट होकर भगवान उसके अशेष दोषों का वैसे ही शमन कर देते हैं, जैसे अन्धकार को सूर्य और तीव्र वायु घनावलि को। जिस कथा में भगवान अधोक्षज का गुणानुवाद नहीं, वह असती, असत्कथा है अतः व्यर्थ ही वाणी का उपयोग है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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