भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवत्कथामृत
वास्तव में ब्रह्मसुख बृहत्तम सुख है। सुसौख्य और परमानन्द की प्राप्ति ब्राह्मसुख के अनुभव से ही होती है। चैतन्यानन्दात्मकसौख्य मृत्युपरिगृहीत प्राणियों को प्राप्त करने का प्रयत्न सदैव करते रहना चाहिये, पर पहले कलुषित मति को विशुद्धाति विशुद्ध बनाना होगा, क्योंकि अमृतत्त्व की प्राप्ति की आशा अपनी मति को विमल बनाये बिना नहीं की जा सकती। भौतिक धनों का मोह त्यागकर पारमार्थिक धन का चिन्तन होगा। अन्तःकरण को सभी विकारों से रहित करना होगा। इसके बाद भगवदीय लीलाकथा-श्रवण में मन लगेगा और वही कथा-श्रवण सर्वस्व समर्पण करायेगा, ब्रह्मप्राप्ति करा देगा और नित्य, शुद्ध, बुद्ध, पूर्ण, निर्विकार, निर्विशेष चैतन्यानन्दघन के माधुर्य को हमारे समक्ष पान के लिये उपस्थित करेगा। कथा श्रवण द्वारा कर्णरन्ध्र से भगवान अन्तस्तल में प्रविष्ट होते हैं। पूर्णब्रह्म चैतन्यानन्द परमात्मा सब में हैं। स्थावर-जंगम सभी प्राणियों में उनकी अवस्थिति है। पर हम सब जीव अज्ञान में पड़े हुए उनकी अवस्थिति को स्वीकार नहीं करते, इसलिये उनको समझने के लिये भगवदीय कथा-श्रवण का महर्षियों ने आदेश किया है। कथा का श्रवण भी करना चाहिये और उसे प्रदान भी करना चाहिये। दोनों हाथ लड्डू हैं। इसका फल परोक्ष नहीं, साक्षात् होता है। कथा श्रवण एवं उसका प्रदान साक्षात् सुख का प्रभाव दिखलाता है। पर, जिनका मन रजस्तमोलेश से अव्याप्त है, अन्तःकरण शुद्ध है, उन्हीं को हरि-कथा सुनने एवं सुनाने का अधिकार है, अन्यों को नहीं। विघ्नकारक तमोलेश सुसम्पादित मूढ़ता, रजोलेश सम्पादित घोरता से लीला-सुधासमास्वादन नहीं हो सकता। जिस पिपीलिका के मुख में लवणकण वर्तमान हैं, उसे भला मिसरी के माधुर्य का अनुभव कैसे हो सकता है? वैसे ही मन को घोर मूढ़तारूप लवण कण के रहते शुद्ध नहीं किया जा सकता और जब मन शुद्ध नहीं है, तब फिर भगवत्प्राप्ति कैसे हो सकती है? मनुष्य जब तक ऐहिक आमुष्मिक प्रपंच से विरक्त न हो, विविध प्रकार के बाह्य सुखों से मन को दूर न कर ले, तब तक उसे परमध्येय, ज्ञेय, परमाराध्य, भगवान की मधुरतापूर्ण लीला का सुस्वादानुभव नहीं हो सकता। इस सुस्वादानुभव के लिये पूर्ण श्रद्धा का होना अपेक्षित है। देखा-देखी नहीं कि चलो अमुक स्थान पर कथा हो रही है, मैं भी चलकर देखूँ क्या होता है। इस तरह से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती। पूर्ण श्रद्धा के होने से क्षणमात्र में ही भागवतप्राप्ति होती है। वर्णाश्रमधर्मानुसार वैदिक कर्म से हृदय को शुद्ध बनाकर अन्धकारपूर्ण आवरण को हृदय-पटल से दूर कर दिव्यातिदिव्य सौन्दर्य, माधुर्य का स्वाद लेने का प्रयत्न करना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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