भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवान और प्रेम
लौकिक जार लोक-परलोक, धर्म-कर्म को जलाने बाला होता है, पर भगवान औपपत्य बुद्धि से भी जाररूप से भी, भावुक के चित्त पर अभिव्यक्त होकर उसके पंचकोश, स्थूल, सूक्ष्म, कारण, तीनों शरीरों को, कर्म-बन्धनों को, किंबहुना अविद्या, तत्कार्यात्मक जगत को जलाकर भस्मसात् कर देते हैं, इसीलिये वे जार हैं। “अनिमित्ता भागवती भक्तिः सिद्धेर्गरीयसी। जरयत्याशु या कोशं निगीर्णमनलो यथा।।” अर्थात निष्काम रागानुगा भक्ति एवं ज्ञान कोशों और कर्मों को जला देता है, जीवात्मा संसार से छूटकर भगवद्भाव को प्राप्त हो जाता है। किसी ने भगवान से परिहास किया था कि हे व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र! जो प्राणी आपका नवनीतचौर्य्य और व्रजयुवतीजनों में औपपत्य का प्रख्यापन करते हैं, आप उन्हें शीघ्रातिशीघ्र ही अपना रूप इसलिये प्रदान करते हैं कि वे हमारे रूप हो जायेंगे, तब हमारे इन कर्तव्यों का वर्णन न कर सकेंगे। अतः अपने कर्तव्यों को छिपाने के लिये ही नवनीत-चौरता और व्रजयुवतीजन-जारता को गाने वालों को आप निजरूप प्रदान करते हैं- वस्तुतस्तु येन-केनापि प्रकारेण भगवान में मन जोड़ते ही प्राणी को भगवद्भाव की प्राप्ति हो जाती है। जैसे चिन्तामणि को दीपक समझकर दीपकबुद्धया भी प्रवृत्त होने पर चिन्तामणि की प्राप्ति होती है, वैसे ही प्रत्यक्चैतन्याभिन्न भगवान ब्रह्म में औपपत्यबुद्धया प्रवृत्त होने पर भी प्राप्ति भगवान की ही होती है। केवल रागानुगामिनी उत्कट प्रीति के लिये ही भावुक लोग लौकिक रूप में भगवान को भजते हैं। ज्ञानी का भी प्रारब्धवस्शात् प्रत्युपस्थित लौकिक पदार्थों में जैसा चित्त स्वाभाविक रूप से प्रवृत्त होता है, वैसा प्रत्यगात्मा में नहीं। इसीलिये भगवान की मधुर लीलाओं का प्राकट्य होता है। चापल्यपूर्ण बाल्य, पौगण्डादि अवस्थाओं की लीलाओं में हठात् चित्त खिंचता है। इस दृष्टि में अमलात्मा परमहंस महामुनीन्द्रों को भक्तियोग का विधान करने के लिये ही भगवान अचिन्त्य, सगुण, साकार, दिव्य श्रीरामकृष्णादि रूप में प्रकट होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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