भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवान और प्रेम
वे ही निरतिशय, निरुपाधिक परप्रेम के आस्पद हैं, वे ही अन्तरात्मा हैं, अतः सच्चा प्रेम उन्हीं में ही होना चाहिये। हाँ, सहज, स्वाभाविक प्रेम भी बिना जाने असत्-सा हो जाता है। जैसे छात्राध्ययन के शब्दों के बीच मिले हुए अपने पुत्र के अध्ययन के शब्द का विविक्त स्पष्ट रूप से प्राकट्य नहीं होता, वैसे ही आत्मप्रेम प्राणिमात्र में होने से आत्मा की परमानन्द-रूपता प्रतीत होने पर भी अविद्या के कारण उसका स्पष्ट प्राकट्य नहीं होता है। परन्तु इस तरह प्राणी अज्ञात रूप से तो आत्म-प्रेमी है ही। अत: प्राणिमात्र ज्ञान से, अज्ञान से, किसी-न-किसी तरह अपने जीवनधन, भगवान का अवश्य ही प्रेमी है। जिसे जितना बोध है, उसे उतना ही प्राकट्य है। जहाँ वह प्रेम सम्यक्रूप से प्रकट है, वहाँ परिपूर्ण ऐश्वर्य भी नतमस्तक हो जाता है। इसीलिये कहा जाता है कि महत्परिमाण परिमिति प्रेमवती व्रजांगनाओं के सामन ऐश्वर्य अपना प्रभाव नहीं डाल सका। कभी श्रीकृष्ण को ढूँढ़ती हुई व्रजांगनाओं को जब अकस्मात् कृष्ण किसी निकुंज में मिल गये, तब कृष्ण अपने को छिपाने के लिये अनन्त ऐश्वर्यपूर्ण श्रीमन्नारायण के रूप में प्रकट हो गये। गोपांगनाओं ने उन्हें प्रणाम किया, परन्तु उनसे माँगा यही कि आप कृपा करके हमारे मनमोहन कृष्णचन्द्र को मिला दो। वे उस नारायणरूप पर मोहित नहीं हुई और श्रीवृषभानुनन्दिनी के पधारते ही वह ऐश्वर्यपूर्ण रूप टिक ही नहीं सका, सहसा कृष्णरूप प्रकट हो गया। निरुपाधिक प्रेम सर्वातिशायी प्रेम है, तथापि प्रेम-प्राकट्य में लौकिकता की अपेक्षा अधिक होती है। इसीलिये देखते ही हैं कि प्राणियों को जितना स्वारसिक प्रेम अपने पुत्र, कलत्र, धन-धान्यादि में होता है, उतना स्वारसिक प्रेम देवता या भगवान में नही होता। इसीलिये परिपूर्ण परमात्मा प्राणि-कल्याणार्य अपनी अलौकिकत को छिपाकर लौकिक रूप ग्रहण करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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