भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भक्तिरसामृतास्वादन
यदि कहा जाय कि स्वप्रकाशवाद में आवरण भंग से ही आनन्द प्राप्त हो जायगा, रस को पाकर आनन्दित होता है यह कहना व्यर्थ है, तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि अनवच्छिन्न चैतन्य की आवरण भंगमात्र से ही रसरूपता हो जाने पर भी तत्तदवच्छिन्न चैतन्यों में तत्तदवच्छेदकगत दोष-गुणों के मिश्रण से आवरण भंगमात्र से ही आनन्द प्राप्ति नहीं हो सकती। इसीलिये विभाव, अनुभाव, व्यभिचारीभाव के संयोग से अभिव्यक्त स्थायी भाव ही सभ्य और अभिनेय का भेद हटाकर सभ्य में ही रहता हुआ परमानन्द-साक्षात्कार द्वारा रसस्वरूप हो जाता है, यही रसज्ञों की मर्यादा है। तात्पर्य यह कि सभी शास्त्रों के महातात्पर्य-विषय परमात्मा में ही सच्चिदादि, रसानन्दादि शब्दों की साक्षात प्रवृत्ति है। तो भी जैसे विषय विशेष में सत्ता शब्द या चैतन्य शब्द प्रयुक्त होता है, वैसे ही रसानन्दादि शब्दों का भी विषय विशेष में प्रयोग हो सकता है। इससे सिद्ध हुआ कि स्थायी अवच्छिन्न भग्नावरण चैतन्य में ही रस शब्द का प्रयोग होता है। जब तक अन्तःकरण वृत्ति की सात्त्विकी द्रवता नहीं होती, तब तक रस, आनन्दादि की अनुभूति भी नहीं होती। इसीलिये उपेक्ष्य एवं द्वेष्य विषयों में भग्नावरण चैतन्य रहने पर भी आनन्द का अनुभव नहीं होता। इसीलिये यह भी कहा जा सकता है कि यह रससिन्धुबिन्दुस्थानीय सोपाधिक जीव अनवच्छिन्न रससिन्धु स्थानीय परमात्मा की या स्थायी अवच्छिन्न भग्नावरण तदंशभूत चित् को पाकर आनन्दित होता है। फिर तो “सावरण अनावरण होकर आनन्दित होता है” यह भी कहना चाहिये था, ‘रस को पाकर आनन्दित होता है’ यह कहना व्यर्थ ही रहा। यह पक्ष भी ठीक नहीं। नित्य प्राप्त, विस्मृत ग्रैवेयक और मिथ्या सर्पादिकों में प्रेप्सा-परिजिहीर्षा देखी जाती है और अज्ञान की निवृत्ति होने पर लाभ परिहार प्रयोग भी देखा जाता है। इसी तरह आवरण भंग से प्रेप्सा निवृत्ति होने पर प्राप्ति व्यवहार भी हो सकता है। प्राकृत पंचकोशातीत स्वरूप तटस्थ लक्षण लक्षित प्रत्यग-भिन्न ब्रह्मस्वरूप परमात्मा ही रस है। उसी को पूर्ण या अंश रूप से पाकर यह सोपाधिक जीव आनन्दित होता है। “एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूतानि मात्रामुपजीवन्ति”,“एष ह्येवानन्दयति” इत्यादि श्रुतियाँ लौकिक आनन्द को भी रसस्वरूप परमात्मा का ही अंश बतला रही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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