भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भक्तिरसामृतास्वादन
यदि स्वभावतः कठिन लाक्षा तापक अग्नि आदि द्रव्य के सम्बन्ध से जल के समान द्रुत हो जाय और सैकड़ों पर्त के चीनांशुक से छान ली जाय, फिर उसमें हिंगल आदि कोई रंग छोड़ दिया जाय, तो वह रंग उस लाक्षा के सर्वांश में प्रविष्ट होकर स्थिर हो जाता है। फिर कठोर या द्रुत होने पर कभी भी रंग लाक्षा से पृथक नहीं होता, वैसे ही भगवद्भावना से भावित द्रवावस्थापन्न अन्तःकरण में भगवान के प्रविष्ट होने पर अन्य वस्तु ग्रहणकाल में भी भगवान का भाग होता ही है। प्रपंचभान सहित भगवद्भान का--
इसी तरह भगवद्विषयक काम, क्रोध, भय, स्नेह, हर्ष, शोक, दया आदि तापक भावों में से किसी के भी सम्पर्क से चित्तरूप लाक्षा गंगाजल प्रवाह के समान द्रुत हो और सैकड़ों पर्त के चीनांशुक से वह क्षालित हो (छान ली जाय) तो, फिर उसमें सर्वांश प्रविष्ट परमानन्द स्वरूप भगवान स्वामी भाव बनकर रसस्वरूप हो जाते हैं। द्रवावस्था में प्रविष्ट विषयाकारता (भगवदाकारता) के कभी भी पृथक् न होने के कारण वहाँ मुख्य स्थायी शब्द का प्रयोग होता है। ऐसा होने पर ही कर्तुकर्तु अन्यथा कर्तु समर्थ भगवान भी यदि स्वयं वहाँ से हटना चाहें तो नहीं हट सकते, उनकी सर्वशक्तिमत्ता भी कुण्ठित हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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