भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
संकल्पबल
प्राणी बार-बार संकल्पित पदार्थ के प्रति अविश्वास करता रहता है, समझता रहता है कि यह तो संकल्प मात्र है, मनोराज्य मात्र है, संकल्पित पदार्थ है। बस, यही अविश्वास संकल्पसिद्धि में बाधक होता है। भावना या उपासना में भी यह अविश्वास ही प्रतिबन्धक है। विश्वास पूर्वक संकल्पित इष्टदेव की मूर्ति, भूषणालंकार, भोग-रागादि कुछ दिनों में प्रत्यक्ष प्रकट हो जाते हैं। त्रिपुरसुन्दरी रहस्य और योगवाशिष्ट में कुछ आख्यान ऐसे आते हैं, जिनमें कहा गया है कि किन्हीं सिद्धों ने संकल्प से ही तीन हाथ की शिला के भीतर ब्रह्माण्ड की रचना कर डाली थी। जब दूसरे व्यक्तियों को शिला के भीतर ले जाया गया तब उन्हें अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, महातल, पाताल, और भूर्भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, सत्य आदि चौदह भुवन- सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, भूधर, सागर, गगन आदि सभी प्रपंच दिखाई दिये। आश्चर्य होता है कि ठोस शिला के भीतर कोई व्यक्ति कैसे प्रविष्ट हो सकता है? जिस ठोस शिला के भीतर सूची, त्र्यणु अादिकों को भी प्रवेश का अवकाश नहीं, उसके भीतर कोई व्यक्ति कैसे प्रविष्ट हो सकता है। और कैसे उसमें ब्रह्माण्ड रह सकता है? परन्तु विचार करने पर मालूम पड़ता है कि सभी देश-काल आदि मन की ही कल्पना है। जैसे स्वप्न में सूक्ष्म नाड़ियों के बीच में ही महादेश और हस्ती, पर्वतादि बड़ी-बड़ी चीजें नजर आती हैं, वैसे ही स्वल्पदेश- तीन हाथ की शिला में ब्रह्माण्ड का होना सम्भव है, जैसे जागृत के दश-पाँच क्षण में ही वर्ष, दश वर्ष का स्वप्न अनुभूत होता है, वैसे ही स्वप्नकाल में महाकाल का भी अनुभव होता है। राजा लवण को एक क्षण के नेत्र निमीलन (झपकी) में सौ वर्ष का स्वप्न हुआ। अरण्य में क्षुधा-पिपासा से व्याकुल होकर किरातिनी के साथ रोटी के लिये विवाह और उसके संग रहकर पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र आदिकों को देखा। आँख खुलते ही पूछा तो वशिष्ठ ने उन सब घटनाओं को सच्चा बतलाया। उसने स्वयं भी जाकर सभी बातों का प्रत्यक्ष अनुभव किया। |
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