भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भक्तिरसामृतास्वादन
जैसे प्रातिभासिक प्रपंच की अपेक्षा घटादि सत्य एवं स्वकारण मृदादि की अपेक्षा असत्य होते हैं या मृदादि भी अपने कारण की अपेक्षा असत्य होते हैं, वैसे ही पारमार्थिक सत्ता की अपेक्षा स्तर भेद से कुछ न्यून सत्तावाला अपारमार्थिक सत्य है। यही सत्ता भगवत्लीला परिकर की है, इसलिये सिद्धान्ततः अद्वैत बना ही रहता है, उसका व्याकोप नहीं होता। चित्तद्रुति के कारण अनेक हैं। उन्हीं के भेद से भक्ति में भेद होता है- “चित्तद्रुते: कारणानां भेदाद्भक्तिस्तु भिद्यते।” शरीर सम्बन्ध-विशेष की स्पृहा होने पर सन्निधान-असन्निधान भेद से काम दो प्रकार का होता है। उससे द्रुत चित्त में श्रीकृष्ण निष्ठता ही सम्भोग विप्रलम्भाख्य रति है। इसी तरह क्रोध, स्नेह, हर्षादि-जन्य चित्तद्रुति में भी रति जाननी चाहिये-
श्रृंगार, करुण, हास्य, प्रीति, भयानक, अद्भुत, युद्धवीर, दानवीर ये सब व्यामिश्रण में होते हैं। राजसी, तामसी भक्ति अदृष्ट फल मात्रवाली होती है। मिश्रित भक्ति दृष्टादृष्ट उभय फलवाली होती है। इसी तरह साधकों की विशेषता से भक्ति शु़द्धसत्त्वोद्भव भी होती है। सनकादि सिद्धों में भक्ति दृष्टफल होती है। जैसे ग्रीष्मसंतप्त पुरुष का गंगा स्नान दृष्टादृष्ट फलक होता है, वैसे ही वैधी भक्ति में भी सुखव्यक्ति होती है, अतः वह दृष्टादृष्ट फलक है। शीतवातातुर पुरुष यदि गंगा स्नान करे, तो उससे जैसे अदृष्टमात्र ही फल होता है, दृष्टांश प्रतिबद्ध हो जाता है, वैसे ही राजसी, तामसी भक्ति में दृष्टांश प्रतिबद्ध हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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