भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
ज्ञान और भक्ति
ज्ञान का फल निर्विकार ब्रह्मात्मनाऽवस्थान और निखिलरसामृतमूर्ति भगवान के आकार से आकारित मानसीवृत्तिरूपा भक्ति का फल भगवत्सायुज्यादि प्राप्ति है परन्तु सम्प्रदायिकों की दृष्टि में तो भगवत्सामीप्यादि प्राप्ति ही मुख्य फल है। भक्ति का फल भक्ति ही है, उससे बढ़कर कोई भी फल नहीं-
परमानन्द रसात्मक भगवान् ही भक्त के द्रवीभूत मन पर व्यक्त होकर भक्तिपद से कहे जाते हैं। कोमलचित्त प्राणी भक्ति का मुख्य अधिकारी है। यद्यपि साधन से कठोर चित्त में भी द्रवता होती है, तथापि उसके लिये ज्ञान अच्छा है। ज्ञानी निर्गुण भक्ति के अतिरिक्त सगुण भक्ति भी करता है, परन्तु उसको भक्ति का भगवत्प्रेमानन्द का रसास्वादनरूप दृष्ट ही फल है, मुक्तिरूप अदृष्ट फल तो ज्ञान से ही उसे प्राप्त है। शिशुपालादि तामस, राजस भक्तों को मुक्तिरूप अदृष्ट ही फल होता है, दृष्ट फल नहीं होता, परन्तु भक्त को तो प्रेमानन्दमय दृष्ट फल और ज्ञान क्रमेण मुक्तिरूप अदृष्ट फल भी प्राप्त होता है।
शब्द-स्पर्शादि विषयों के उपलम्भ से अनुमित होने वाले श्रौतस्मार्त्त्तकर्मपरायण आन्तर-बाह्य करणों की सत्त्व (सत्त्वोपाधिक विष्णु किंवा सतामात्र परब्रह्म) में जो स्वाभाविकी वृत्ति है वही भक्ति है। अर्थात श्रौतस्मार्त्त कर्मों से शुद्धनिर्मल बाह्य इन्द्रिय और अन्तःकरण को ब्रह्मप्रवणता या भगवत्परायणता ही भक्ति है। यह भक्ति अन्नमयादि पंचकोशों को उसी तरह जला डालती है, जैसे भक्षित अन्न को जठराग्नि पचा डालती है। “जरयत्याशु या कोशं निगीर्णमनलो यथा।” निर्गुणब्रह्म या सगुणब्रह्म में, तत्रापि काम, क्रोध, स्नेह से, यथा कथंचित् मन की उन्मुखता ही भक्ति है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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