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जो मच्चित्त तथा मद्गतप्राण होकर मेरे ही कथन प्रबोधन में तुष्ट होकर रमण करते हैं, उनके ऊपर अनुकम्पा करके उनके आत्मभाव से स्थित होकर भासवान (प्रकाशयुक्त) ज्ञानदीपक से उनके हृदय के अज्ञानरूपी अन्धकार को मैं नष्ट कर देता हूँ-
- “मच्चित्ता मद्गतप्राणाः बोधयन्तः परस्परम्।
- कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।।
- एवं सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
- ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।
- तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
- नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।”
इस तरह भगवत्कृपाविशेष से सगुणोपासकों को भगवान के निर्गुणस्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। यदि श्रवणादि में प्रवृत्ति या इस जीवन में भगवत्कृपा द्वारा तत्त्व साक्षात्कार न हुआ, तो भी मरणकाल में तत्त्व साक्षात्कार होना सम्भव होता है। यावज्जीवन प्राणी को प्रारब्धानुसार भटकना पड़ता है और पुरुषार्थ को योग्यता होने से भी भगवान भी उसके पुरुषार्थ की प्रतीक्षा करते हैं; परन्तु मरणावसर में तो फिर भगवान अपनी अनुकम्पा-विशेष से उसे सुलभ होते हैं। उस समय भगवान जीव की असमर्थता का अनुभव करते हुए, जीव के प्राथमिक भावों को देखकर अपनी सहज अनुकम्पा से जीव का कल्याण करते हैं।
- “अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
- तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।।”
अर्थात जो अनन्य मन से सदा मेरा भजन करता रहता है, मैं अन्त में उसे सुलभ होता है। प्राणनिरोध, समाधि आदि न कर सकने पर भी मृत्युकालीन विषम वेदना के समय में मैं अपनी कृपा-विशेष से उसे सुलभ होता हूँ।
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