भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
ज्ञान और भक्ति
वे ही परिश्रमों से सत्कुलजन्म, विद्या, त्याग आदि उच्च पद पर आरूढ़ होकर भी कामादि दोषों से भ्रष्ट हो जाते हैं। उन्हीं के लिये- “येऽन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्त मानिनः” इत्यादि उक्तियाँ हैं। यहाँ ‘पर’ पद का अर्थ ब्रह्मपद की प्राप्ति, उसका अपरोक्ष व साक्षात्कार नहीं कहा गया है, क्योंकि ब्रह्मपद पाने के बाद पुनः पतन नहीं होता- “न स पुनरावर्तते, न स पुनरावर्त्तते” निराकार निर्विकार ब्रह्म का अपरोक्ष साक्षात्कार होने पर पुनः कर्मों का प्ररोहण भी अत्यन्त श्रुति-विरुद्ध है। अतः वह भी अमान्य ही है। “ज्ञानाग्निदग्धकर्माणि” इत्यादि वचनों का तात्पर्य भगवान के अनुगमन की प्रशंसा में ही है। ‘अपि’ शब्द से भी यही भाव निकलता है। भगवान को रथयात्रा करते देखकर उनका अनुगमन न करना महा अपराध है। अतः अवश्य ही अनुगमन करना चाहिये। और की तो कथा ही क्या, ज्ञानाग्निदग्धकर्मा को भी उसका दण्ड मिलता है। “न हि निन्दा निन्द्यं निन्दितुं प्रवर्तते अपितु विधेयं स्तोतु-मिति न्यायात्” निन्दा का तात्पर्य निन्द्य की निन्दा में नहीं, अपितु किसी विधेय की स्तुति में ही है। ऐसे ही “ज्ञाने प्रयासमुदपाम्य” इत्यादि श्लोक से ज्ञान प्रयास-त्याग का भी तात्पर्य यही है कि भगवच्चरित्र-श्रवणादि-लक्षण भगवद्भक्ति सहित ही ज्ञान प्रयास सफल होता है। विशेषतः वहाँ ज्ञान से शास्त्रीय परोक्ष ज्ञान ही विवक्षित है, अर्थात प्राणी को केवल शास्त्रीय परोक्ष ज्ञान में इतना प्रयास न करना चाहिए कि जिससे श्रुतिगता भगवदीयवार्ता का आदर छूट जाय। कारण भगवद्भक्ति बिना भ्रमनिवर्त्तक ब्रह्मापरोक्षसाक्षात्कार नहीं हो सकेगा।
सर्वविध कल्याणों का प्रसव करने वाली किंवा सर्व प्रकार के श्रेयों की निर्झरिणी श्रीभक्ति महारानी को छोड़कर जो केवल शास्त्रीय बोध प्राप्त करने के लिये क्लेश उठाते हैं, उनको सिवा क्लेश के और कुछ नहीं बचता। जैसे स्थूल धान की भूसी का अवहनन (कुट्टन) करने वाले को सिवा परिश्रम के और कुछ भी हाथ नहीं लगता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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