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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
माँ के श्री चरणों में
भावना के परिपाक के अहल्या को चारों ओर इन्द्र परिलक्षित होता था और विवशता से लज्जाविहीन होकर इन्द्र के सम्बन्ध में ही वह प्रलाप करने लगी। उसकी प्रियवयस्या (सखी) ने उसे विकल देखकर कहा-“मैं तुम्हारे प्रिय इन्द्र को ला देती हूँ, तुम धैर्य धारण करो।’ अहल्या दीन होकर उसके चरणों में गिर पड़ी। सखी ने इन्द्र नामक द्विजकुमार के पास जाकर सब वृत्तान्त कहा और उसे लाकर अहल्या से मिलाया। दोनों ही परस्पर प्रेम से अनुरक्त हो गये और प्रेम के प्रकर्ष के कारण ही रानी समस्त गुणों से परिपूर्ण, सर्वेश्वर्य सम्पन्न, अपने राजा को भूल गयी और उस विप्रकुमार इन्द्र में अनुरक्त होकर सम्पूर्ण विश्व को ही इन्द्रमय देखने लगी। इन्द्र भी पूर्णरूप से उसके अनुराग में अनुरक्त हो गया। इन्द्र के ध्यान में भी अहल्या का मुख पूर्णचन्द्र के द्वारा प्रफुल्लित कैरव के तुल्य शोभित होता था। इन्द्र के भी अन्तःकरण, अन्तरात्मा तथा रोम-रोम में अहल्या भरपूर हो गयी और क्षणभर भी उसके बिना वह नहीं रह सकता था। इस तरह अति सघन स्नेह के कारण उनके व्यवहार निरावरण ही गये। राजा इन्द्रद्युम्न को यह वृत्तान्त विदित हो गया, राजा ने उन दोनों को ही विविध प्रकार का दण्ड दिया। शीत-काल में दोनों को शीतल सलिल में डाल दिया। दोनों सर्वथा अखिन्न होकर, प्रसन्न हो हँस रहे थे। राजा ने पूछा-“तुम दोनों खिन्न न होकर हँस क्यों रहे हो?” वे परस्पर कान्तियुक्त, अनिन्दित मुख का स्मरण करते हुए बोले-“हम दोनों परस्पर प्रेम के कारण रूढ़भाव होकर देहादि का स्मरण ही नहीं करते, अब स्व-स्वांगों के छिन्न-भिन्न होने पर भी हम लोगों को कुछ भी कष्ट नहीं होता।” राजा ने उन दोनों को भ्राष्ट्र (भाड़) में डाल दिया, तो भी दोनों एक-दूसरे को निहारते हुए प्रसन्न थे। उन्नत गजेन्द्र के पैरों तले दोनों को बाँधा गया। दोनों को कोड़ें लगवाये गये, फिर भी प्रसन्न थे। इन्द्र ने कहा-“राजन! मुझे तो सम्पूर्ण संसार प्रिय अहल्या ही के रूप में दिखलायी देता है और अहल्या को सब कुछ मैं ही प्रतीत होता हूँ। अतः कोई दुःख हम दोनों को बाधा नहीं पहुँचा सकते।” वस्तुतः पुरुष मनोमात्र ही है। देहादि प्रपंच उसी का विकार है। इस तरह सहस्रों दण्ड विधानों से भी उनके मन को बदलने में राजा असमर्थ रहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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