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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
माँ के श्री चरणों में
यमदूतों और काल से आकृष्ट होता हुआ विविध विपत्तियों का भाजन बनता है। अहो! लोभ से वंचित होकर प्राणी कितने अपमानों, दुःखों और विडम्बनाओं में फँसता है और अपने आपको समझने में असमर्थ ही रहता है। दूसरों को मूर्ख कहता हुआ भी अपनी मूर्खता की ओर ध्यान नहीं देता। हे अपराजिते! हे अमिते! अनुपमचरिते माँ! क्या कभी भी प्राणी बिना तुम्हारी कृपा से इस व्यामोह से, इस माया से मुक्त हो सकता है? क्या कभी भी प्राणी बिना तुम्हारी कृपा से इस व्यामोह से, इस माया से मुक्त हो सकता है? ठीक ही कहा है कि जिस पर आप कृपा करती हैं। वही दुस्तर देवमाया को पार कर सकता, तभी श्वश्रृगालभक्ष्य शरीर से ममाहंबुद्धि हट सकती है। पर इसके लिये निर्व्यलीक, निष्कपट अकैतवरूप से आपकी शरणागति अपेक्षित है-
माँ! कितना भीषण संसार हैं! आपने शास्त्रों में तो बतला रखा है कि कोई ब्राह्मण हिंस्त्र-व्याघ्रसंकुल गहन कान्तार से पहुँच गया। सिंह, व्याघ्र, गज एवं भल्लूको के कर्कश घोर नादों एवं भीषण आकृतियों से घिर गया। उस भीषण स्थिति को देखकर साक्षात यम को भी त्रास हो सकता है। ब्राह्मण का हृदय उद्विग्न हो गया, देह में रोमांच हो गये। वह घोर गहन वन में दशों दिशाओं में शरण ढूँढता हुआ भटकता है। भागने का प्रयत्न करता है, पर भाग भी नहीं सकता। अकस्मात् अन्य भयंकर वन में पहुँचकर देखता है कि एक भीषण स्त्री ने चारों तरफ जाल फैला रखा है। पाँच-पाँच फणों वाले अगणित नाग भीषण वृक्षों से भी वह वन घिरा है। उसी वन में एक कूप था, जो विविघ दृढ़ वल्लियों से ढँका हुआ था। ब्राह्मण उसी अन्धकूप में गिर गया और तृणाच्छन्न वल्लियों पर बृहत् पनस (कटहल) फल के तुल्य लटक गया। शिर नीचे को था पैर ऊपर को। नीचे कूप में देखता है कि एक भीषण महानाग है। छः मुख, 12 पैरोंवाला तथा शुक्ल-कृष्ण वर्ण का एक महागज कूप के बाहर था। वह वल्लियाँ भी खूब फैली हैं। नानारूप धर घोर मधुकरों ने ऊपर मधु के छते को को घेर रखा है, उसमें ही कुछ-कुछ मधु कभी-कभ टपकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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