भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
प्राणियों के परिपक्व कर्मों का भोग द्वारा क्षय हो जाने पर प्रलय होता है। उस समय सब प्रपंच माया के ही उदर में लीन रहता है। माया भी स्वप्रतिष्ठ निर्गुण ब्रह्म में लीन रहती है। ‘‘अव्यक्तं पुरुषे ब्रह्मन् निर्गुणे सम्प्रलीयते।’’ विष्णु पुराण के इन वचनों से अव्यक्त का भी ब्रह्म में लय स्मृत है। अव्यक्त का माया ही अर्थ है, प्राणियों के कर्म-फल-भोग का जब समय आता है। तब चिदात्मिका भगवती में सिसृक्षा (सृष्टि की इच्छा) उत्पन्न होती है। माया की उसी अवस्था को विचिकीर्षा आदि शब्दों से कहा जाता है। कर्म परिपाक का विनश्यद अवस्था वाला प्रागभाव ही विचिकीर्षा है। यद्यपि गुणसाम्य दशा में कर्म परिपाकादि के अनुकूल कोई भी व्यापार नहीं होते, अतः साम्यावस्था भंग का क्या कारणा है यह जानना बहुत कठिन है, तथापि जैसे निद्रा के अव्यवहित प्राक्काल के प्रबोधानुकूल दृढ़ संकल्प की महिमा से ही नियत समय पर निद्रा भंग होती है, वैसे ही प्रलय के अव्यवहित प्राक्कालिक ईश्वरीय संकल्प से ही नियत समय पर जाता है। विभाग को न प्राप्त हुआ यह बिन्दु ही ‘अव्यक्त’ कहलाता है। यह माया की ही अवस्था है, अतः यह मायापदवाच्य होता है। यद्यपि यह महदादि के समान तत्त्वान्तर रूप से उत्पन्न नहीं होता, अत: माया ही है, तथापि माया की एक विशिष्टाकार से उत्पत्ति हुई है, अतः ‘‘तस्मादव्यक्तमुत्पन्नं त्रिविधं द्विजसत्तमम्’’ इत्यादि वचनों से उसकी उत्पत्ति भी कही गयी है। केवल ब्रह्म में कारणता नहीं बन सकती, अत: उसे भी सूक्ष्मावस्था विशिष्ट माया से मुक्त ब्रह्म में ही कारणता समझना चाहिये। बीज और अंकुर के बीच की उच्छूनावस्था को ही, जिसमें बीज, धरणि, अनिल, जल के सम्पर्क से क्लिन्न होकर कुछ फूलता है, अव्यक्तावस्था समझनी चाहिये। गुणासाम्य बीजावस्था है, वही शुद्ध माया है। बीज का अंकुरित होना कार्यावस्था है। स्पष्ट ईक्षण और अहंकार आदि ही महत्त्व, अहन्तत्त्व आदि है। व्यष्टि जगत में समझ सकते हैं कि निद्रावस्था बीजावस्था है, निद्रा का प्रबोधोन्मुख होना अव्यक्तावस्था है, विकल्प विशेष विरहित प्रबोध महत्तत्त्व की अवस्था है, अहंकार का उल्लेख होना ही अहंतत्त्व की अवस्था है, तदनन्तर स्थूल कार्यादि सम्पत्ति होती है। अन्तर्मुख अव्यक्त की ‘तुरीय’ संज्ञा है, बहिर्मुख अव्यक्त की ‘कारण देह’ संज्ञा है। बहिर्मुख अव्यक्त से सूक्ष्म-स्थूल देह की उत्पत्ति होती है, इसी में सम्पूर्ण विश्व आ जाता है। समष्टि-व्यष्टि स्थूल देह और ज्ञानेन्द्रिय तथा अन्तःकरण के अधिपति सरस्वती सहित ब्रह्मा हैं। क्रिया शक्त्यात्मक लिंग देह के अधिपति लक्ष्मी सहित विष्णु हैं। कारण देह के अधिपति गौरी सहित रुद्र हैं। तुरीय देह की अभिमानिनी भुवनेश्वरी और महालक्ष्मी हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज