भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
‘देवीसूक्त’ से विदित होता है कि साक्षात् परब्रह्म ही देवी आदि नामों से प्रख्यात है। स्वयं देवी कहती हैं- ‘‘अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुतविश्वदेवैः।।’’ अर्थात मैं ही रुद्र, वसु, आदित्यादि रूप से विहरण करती हूँ। इन्द्र, अग्नि एवं अश्विनीकुमारों को मैं ही धारण करती हूँ। सोम, त्वष्टा, पूषा, भग आदि को भी मैं ही धारण करती हूँ। देवताओं को हविः प्रदान करने वाले यजमान को फल-प्रदान भी मैं ही करती हूँ।
अर्थात सब जगत की ईश्वरी, धन प्राप्त कराने वाली, तत्त्वज्ञानिनी एवं यज्ञार्हों में मैं ही मुख्य हूँ, मैं ही प्रपंचरूप से स्थित हूँ। अत: देवताओं ने अनेक स्थानों में अनेक रूप से मेरा ही विधान किया है, विश्वरूप से मैं ही स्थित हूँ। जहाँ भी, जो भी किया जाता है, सब मेरी ही तत्र-तत्र, तेन-तेन रूपेण सम्पत्ति है। खाना, देखना, प्राणन करना, श्वासोच्छ्वासादि व्यापार करना सब मेरी ही शक्ति से सम्भव है। जो मुझ अन्तर्यामिणी को नहीं जानते, वे उपक्षीण हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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